नारी जीवन
किवाड़ के खरकने के आवाज़ पर
दौड़ कर वो कमरे में चली गयी
आज बाबूजी कुछ कह रहे थे माँ से
अवाज़ थी, पर जरा दबी हुई
बात शादी की थी उसकी चल पड़ी
सुनकर ये बात जरा शरमाई थी
आठवीं जमात ही बस पढ़ी थी वो
चौदह ही तो सावन देख पाई थी
हाथ पीले करना उसके तय रहा
बात ये बाबूजी जी ने उससे कह दिया
एक अनजाने पुरुष के साथ में
दान कन्या का पिता ने कर दिया
था पति वो रिश्ते के लिहाज़ से
बाप के वो उम्र का था दिख रहा
साथ अपने एक नई सी राह पर
सहमी सी एक कली को ले जा रहा
चेहरे पे न ख़ुशी के भाव थे
चाल में न कोई उत्साह था
पूरी राह कुछ बात न हो पाई थी
आपसी सहमति का अभाव था
कोई उससे पूछता उसकी चाह भर
सोच भर किसी की ऐसी ना रही
टूटते इच्छाओं को मन में लिए
साथ उसके वो थी यूँही चल पड़ी
चाह थी ना राह थी ना कोई परवाह थी
एक बदन की आर में फसी ये विवाह थी
मन में उसकी आह थी वो तन से न तैयार थी
हर रात मिलने वाली उसकी ये व्यथा अथाह थी
छोटी सी उम्र उसपर पुरे घर का काम था
दिन में ना थी छूट ना ही रात को आराम था
तन में दाग थे भरे और मन में उसके घाव था
उसके पति को उससे थोडा भी ना लगाव था
बेजुबानी दसुलुकी रोज़ ही की बात थी
दर्द वो सहती रही फिर भी उसीके साथ थी
चाह के भी बाबूजी से ये बोल न वो पाई थी
बात थी अब की नहीं ये उन दिनों की बात थी
कुछ दिनों में साथ उसको शहर ले वो चल गया
जो नहीं थी चाहती वो काम ऐसा कर गया
दूर अपने घर से होकर दिल ये उसका भर गया
तन तो उसके साथ ही था मन यही पर रह गया
तन के कपडे फट चुके थे पैरों में चप्पल नहीं
दो दिनों से पेट में था अन्न का दाना नहीं
क्या करे वो किसे बताये कुछ समझ आता नहीं
चार दिन से पति उसका लौटकर आता नहीं
पेट में बच्चा है उसके आखरी माह चल रहा
दो कदम भी चल सके वो अब न उसमे बल रहा
वो न लौटेंगे अभी के काम ना हो पाया है
अपने एक साथी के हाथों उसने ये कहलवाया है
सालों पार हो गए पर हाल अब भी यह रहा
आज भी पति उसका न काम कोई कर रहा
चार बच्चो को पालने में उम्र बीती जा रही
आज भी वो साथ उसके शादी ये निभा रही
यातना ये वर्षों की थी दिन दो दिन की थी नहीं
दर्द ही पीया था उसने खुशियां उसकी थी नहीं
जुल्म की बयार उसको रौंदती चली गयी
खुदके जन्मे बच्चों को भी भूलती चली गयी
स्वास्थ गिर चूका है उसका सब्र भी जाता रहा
दर्द के इस सागर में सुध भी गोता खा रहा .
मार पिट और भूख से वो पार न हो पाई थी
मानसिक सुधार घर में खुद को एक दिन पाई थी
कुछ दिनों में घर उसको लौट के जाना पड़ा
सुखी रोटी नमक के साथ समझे बिन खाना पड़ा
आज भी पति उसका जल्लाद ही बना रहा
चोट देने को उसे वो सामने तना रहा
बच्चे उसके भूख से सामने तिलमिला रहे
पेट मलते आह भरते अपने माँ से कह रहे
देख के ये मार्मिक दृश्य देव भी थे रो पड़े
माँ के सुध को फेरने वो अब स्वयं थे चल पड़े
कुछ दिनों के बाद अब वो पूरी तरह से स्वस्थ थी
अपने बच्चों के लिए वो जीने को प्रतिबद्ध थी
खून जलाकर अपना उसने बच्चों को जिलाया था
खुद रही भुकी मगर अपने बच्चों की खिलाया था
छोड़ के भागा उसे फिर वर्षों तक ना वो लौटा था
मुड़के पीछे बीते कल को इसने भी फिर ना देखा था
मेहनत और मज़दूरी से बच्चो को अपने बड़ा किया
बेटी को ब्याहा बेटों को अपने पैरों पर खड़ा किया
पूरी ज़िन्दगी खाक हो गयी बच्चों को बनाने में
एक पल भी लगा नहीं बच्चों को उसे भगाने में
जीवन के भट्टी खुद को जिनके खातिर झोंक दिया
उन्ही बच्चों ने मानो उसके ह्रदय पर जैसे चोट किया
छोड़ चले सब उसको अपनी खुशियों के ठिकाने पर
प्राण छूटे तो पड़े मिले तस्वीर सबकी सिरहाने पर
कैसी नारी है जो अब भी इतना सब कुछ सह लेती है
दर्द सभी के अश्क सभी के अपने दिल में भर लेती है
क्षमा कर हमें हे भगवन हमने उसको तड़पाया है
तू खुश रखना उसे हमेशा हमने बहुत रूलाया है
बहुत कहा मैंने लेकिन अब आगे न लिख पाऊँगा
खुद के आसूंओं को मैं आँखों में रोक अब ना पाऊँगा