धर्मनिरपेक्षता : राष्ट्रीय एकता के लिए जरूरी
हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ईस्वी (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.
उक्त पैराग्राफ भारतीय संविधान की प्रस्तावना है. यह उसकी मूलात्मा भी है. यह हमारे देश का संकल्प भी है. यह हमारे देश का लक्ष्य भी. कोई भी समझदार व्यक्ति जो थोड़ी भी जागरूकता रखता है, जो समता-स्वतंत्रता-बंधुता-न्याय जैसे मानवीय मूल्यों का समर्थक है, वह प्रस्तावना की उक्त पंक्तियों में निहित शब्दों ही का क्या, अक्षर-अक्षर का समर्थन करेगा. लेकिन देश का यह दुर्भाग्य है कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी एक वर्ग की ओर से इस पर अनाप-शनाप बातें कही जाती हैं. बहुत दिनों तक धर्मनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता का शाब्दिक-भ्रम पैदा कर विवाद खड़े किए जाते रहे. मैं समझता हूं चाहे प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द रख लें अथवा पंथनिरपेक्ष, मूलभावना में विशेष अंतर नहीं पड़ता. लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है, जब मैं किशोरवय की दहलीज लांघकर युवा बनने की ओर उन्मुख था, नब्बे के दशक के मंदिर-मस्जिद विवाद के दौरान देश की धर्मनिरेक्षता के खिलाफ ‘सूडो सेक्युलिरिज्म अर्थात छद्म धर्मनिरपेक्षत जैसे शब्द उछाले गए. देश की बहुसंख्यक आबादी में कुछ इस तरह असुरक्षाबोध पैदा किया गया कि जिससे देश में सांप्रदायिक उन्माद चरम सीमा पर भड़का. उसका जहरीलापन देश में आज भी कायम है. मैं स्वयं हिंदू हूं, इसके बावजूद इस मत का समर्थक हूं कि सांप्रदायिक ताकतों को तो छोड़िए तथाकथित धर्मनिरपेक्ष की सोच रखनेवालों ने भी अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय व पिछड़े जातीय समूहों की ओर न्यायोचित ध्यान नहीं दिया.
व्यक्तिगत तौर पर मेरा धर्मनिरपेक्षता पर पूरा भरोसा है. बहुधार्मिकता, बहुनस्लीय, बहुसांस्कृतिक देश के तौर पर भारत का अस्तित्व इस पर निर्भर है कि यहां धर्मनिरपेक्षता कितनी कामयाब है? मौजूदा समय में, भारत में धार्मिक तौर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों की आबादी करीब 20 फीसदी है. इनमें मुसलमान 14.2 प्रतिशत हैं. कुछ अनुमानों के मुताबिक आगामी समय में यह 25 फीसदी के आसपास स्थिर हो सकता है जिसमें सिर्फ मुस्लिमों की आबादी करीब 20 फीसदी होगी. कोई भी देश अपनी एक चौथाई आबादी की उपेक्षा कर, उन्हें उनके अधिकारों और समुचित भागीदारी से वंचित कर या अवांछित मानकर, न तो संपन्न बन सकता है, न ही शांति से रह सकता है.
इन दिनों एक वर्ग की ओर से भारत में बड़े पैमाने पर धार्मिक अल्पसंख्यकों और मुसलमानों के तुष्टिकरण की बहुत बातें की जाती हैं. शोर ऐसा मचाया जाता है कि जैसे आजादी के बाद से अब तक की सरकारें सबकुछ अच्छे काम इसी समुदाय के लिए ही करती आई हैं. लेकिन जस्टिस सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से मुसलमानों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति बहुत स्पष्टता से सामने आती है. साफ-साफ मालूम पड़ता है कि यह तबका इतने सालों से अब तक हाशिए पर ही रहा आया है. यह तबका अब तक शासन-प्रशासन में मात्र डेढ़ प्रतिशत ही भागीदारी रखता है. यह देखना कितना दुखद है कि इस रिपोर्ट पर चर्चा के लिए संसद के पास समय नहीं है, न ही टीवी की बहसों में और न ही हम बुद्धिजीवियों के पास. इतना ही नहीं जस्टिस रंगनाथ मिश्रा कमीशन रिपोर्ट की अनुशंसाओं पर भी विचार करने का समय संसद के पास नहीं है. पिछली कथित धर्मनिरपेक्ष सरकारों को भी नहीं, वर्तमान मोदी सरकार से तो कुछ उम्मीद भी नहीं है.
भारतीय संविधान दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्मनिरपेक्ष संविधान है. शुरू में साफ-साफ तौर पर धर्मनिरपेक्षता शब्द को शामिल नहीं किया था. फिर भी अगर हम संविधान की शुरुआती प्रस्तावना और निहित संवैधानिक व्यवस्थाओं को देखते हैं तो उसमें साफ-साफ धर्मनिरपेक्षता की भावना निहित है. हालांकि आपातकाल के दौरान 1976 में संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द को स्पष्ट तौर पर शामिल किया गया.
कितनी शोचनीय बात है कि पिछले कुछ समय से भारत की धर्मनिरपेक्षता को लेकर काफी सवाल उठ रहे हैं. स्वतंत्रता के बाद पहली बार इन दिनों हिंदू राष्ट्र की विचारधारा पर इतने खुले तौर पर बात हो रही है.
हालांकि जवाहरलाल नेहरू ने 6 सितंबर 1951 को ही हिंदूराष्ट्र पर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी- हिंदू राष्ट्र का केवल एक ही मतलब है, आधुनिक सोच को पीछे छोड़ना, संकीर्ण होकर पुराने तरीके से सोचना और भारत का टुकड़ों में बंटना. लेकिन अब हालत क्या हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में इस बारे में चिंता जता दी थी, भारत अब तक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन हम ये नहीं जानते हैं कि यह कितने लंबे समय तक धर्मनिरपेक्ष देश बना रहेगा. (इंडियन एक्सप्रेस, 10 फरवरी, 2015)
भारतीय संविधान की प्रस्तावना ही नहीं, उसकी कई धाराओं से धर्मनिरपेक्षता का भाव जाहिर होता है. मसलन धारा-14 के तहत कानून की नजर में एकसमान होना, धारा-15 के तहत धर्म, जाति, नस्ल, लिंग और जन्मस्थल के आधार पर भेदभाव पर पाबंदी, धारा-16 के तरह तक सार्वजनिक रोजगार के क्षेत्र में सबको एक समान अवसर मुहैया करना जैसी तमाम धाराएं शामिल हैं.
यह तो संवैधानिक स्थिति है लेकिन समाज के अंदर की यथार्थ स्थिति काफी निराश करने वाली है. न तो बहुसंख्यक आबादी, न ही अल्पसंख्यक समुदाय पूरी तरह से धर्मनिरपेक्षता के आशय को समझ पाई है. धर्मनिरपेक्षता जो एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के लोगों के साथ जोड़ने का काम करना चाहिए लेकिन वह तोड़ने का कारण बन रहा है. एक बात और बता दूं संविधान में धर्मनिरपेक्षता की अपेक्षा राज्य नामक मशीनरी से की गई है. जनता अपनी-अपनी आस्था के साथ धर्म, उपासना-पूजा पद्धति को अपना सकती है. इसके साथ ही संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से यह भी अपेक्षा की गई है कि भारतीय समाज क्रमश: वैज्ञानिकता की ओर उन्मुख होगा. स्पष्ट है जो भी धार्मिक समुदाय समयानुसार अपनी परंपराओं, मान्यताओं में परिवर्तन लाएगा, वह विकास करेगा अन्यथा पीछे रह जाएगा.
लेकिन धर्मनिरपेक्षता को लेकर देश के सबसे बड़े धार्मिक समुदाय हिंदुओं की सबसे बड़ी शिकायत यही है कि ज्यादातर नियम, कानून, पाबंदियां सब उनकी धार्मिक मान्यताओं और संस्थाओं पर ही लगाई जाती हैं. यह सोच साफ-साफ बताती है कि कुछ संकुचित राजनीतिक ताकतें समाज को किस तरह भ्रमित कर अपना उल्लू सीधा करती हैं. आजादी के इतने वर्षों के बाद भी देश में काफी ऐसी घटनाएं हुई हैं जो संदेह पैदा करती हैं कि ये कैसा धर्मनिरपेक्ष भारत है. एक तो भारत में राजनीति को धर्म से अलग कर नहीं देखा जा रहा है. इसके अलावा बाबरी मस्जिद को गिराना, 1984 में दिल्ली और दूसरे शहरों में हुए सिख विरोधी दंगे, दिसंबर 1992 और जनवरी, 1993 में मुंबई में हुए भयानक दंगे, 2002 में गुजरात के गोधरा और अन्य शहरों में हुए दंगे देश में सांप्रदायिक भेदभाव और हिंसा की घटनाओं को बढ़ावा देते रहे हैं. सिर्फ इस बात की आशंका पर कि किसी के परिवार में गौमांस रखा है, उस परिवार के मुखिया को मौत के घाट उतारना.
धार्मिक अल्पसंख्यकों को कुछ संरक्षण जैसी बातों को लेकर हिंदू समाज में इतना भय पैदा किया जाता है कि जैसे धार्मिक अल्पसंख्यक के हितों की कीमत पर उनके साथ घोर अत्याचार किया जा रहा है. बस यही बात सांप्रदायिकता को उकसा देती है और देश का सामाजिक तानाबाना अस्वस्थ बना रहता है.
1954 से 1985 के बीच देश भर में करीब 8,449 सांप्रदायिक दंगे हुए हैं जिनमें 7,229 लोगों की मौत हुई है और 47,321 लोग घायल हुए हैं. हालात यहां तक बिगड़े हैं कि गोहत्या के नाम पर लोग क्या खाएं, इसकी आजादी भी उनसे छिन गई है, वे कौन सा पेशा अपनाएं या क्या कारोबार करें, इसकी भी आजादी छिनी है. बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने भी भारत में धर्मनिरपेक्षता के अस्तित्व पर गंभीर सवाल उठाए थे.
मुझे हंसी आती है और कोफ्त भी होता है ऐसे लोगों और संगठनों पर जो धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह निकालते हैं- राज्य का कोई धर्म नहीं – इस तरह का सवाल कर उपहासात्मक अंदाज में बातचीत के दौरान सवाल खड़ा किया जाता है कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह है कि यहां की सरकार अधर्मी है, जबकि एक सामान्य विवेकशील व्यक्ति भी बता सकता है कि संविधान में धर्मनिरपेक्षता का प्रावधान बहुलतावादी देश की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सेहत के लिए कितना जरूरी है.
महादेवी वर्मा जैसी प्रबुद्ध शख्सियत ने भी एक बार किसी मंच से हमारे देश के नेताओं से कितना बाहियात सवाल पूछा था, हम अपने धर्म के प्रति निरपेक्ष कैसे हो सकते हैं? और यह श्लोक पेश कर धर्मनिरपेक्षता का उपहास उड़ाया था कि धर्म का उपासना पद्धति से नहीं, बल्कि आचरण से संबंध है. मनुस्मृति का यह श्लोक प्रमाण के रूप में पेश किया था-
धृति: क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम॥
अर्थात – मनु ने धृति (धैर्य), क्षमा, दम, अस्तेय, शौच (पवित्रता), इंद्रिय निग्रह, ज्ञान, विद्या, सत्य, क्रोध का त्याग ये धर्म के या धार्मिक होने के दस लक्षण बताए हैं.
ठीक है यह तो धर्म की एक तरह से सही आदर्श परिभाषा हुई लेकिन आम जनमानस में तो धर्म के नाम पर उपासना पद्धति और धर्म का तथाकथित पारंपरिक-सांगठनिक स्वरूप ही बैठा हुआ है. यही कारण है कि विभिन्न पथ-मतांतरों में मतभेद रहते हैं और यह मतभेद बीच-बीच में इतने गहरा जाते हैं कि वह खूनी रूप ले लेता है. सैकड़ों हजारों इसके शिकार होकर काल-कवलित हो जाते हैं. फिर इसी बात को ध्यान में रखते हुए संविधान में धर्मनिरपेक्ष की संकल्पना को स्वीकार किया गया है.
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र से आशय ऐसे राष्ट्र से है जिसमें राज्य का दिन-प्रतिदिन का व्यापार किसी विशिष्ट तथाकथित धर्माधारित मूल्यों से संचालित नहीं होता. राज्य अपने सभी नागरिकों के साथ, उनकी धार्मिक आस्थाओं में भिन्नता के बावजूद, समानता का व्यवहार करेगा. सभी धर्मावलंबियों का राज्य के संसाधनों पर समान अधिकार होगा और नौकरियों, व्यापार या कानून के मामले में उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होगा. राज्य अपने सभी नागरिकों की जान-माल की हिफाजत का जिम्मेदार होगा. हां, एक लोककल्याणकारी राज्य की दृष्टि से सामाजिक-शैक्षणिक-आर्थिक तौर पर कमजोर और अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय को भी मुख्यधारा में शामिल करने की दृष्टि से कुछ सुविधाएं और रियायतें अवश्य दी जा सकती हैं. सच पूछा जाए तो ये रियायतें भी सामाजिक ताने-बाने को स्वस्थ बनाए रखने के लिए हैं, इसे पक्षपात की संज्ञा देना अस्वस्थ और संकीर्ण नजरिए का परिचायक है.
अब बताइए, धर्मनिरपेक्षता की इस सामान्य समझ से परे क्या कोई दूसरी समझ हो सकती है? हिंदुत्ववादी धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर पंथनिरपेक्षता शब्द का आग्रह रखते हैं. उनका कहना है कि धर्मनिरपेक्षता से धर्म-विमुखता की ध्वनि निकलती है. हिंदुत्ववादियों की पंथ निरपेक्षता की यह यात्रा काफी घुमावदार मोड़ों से गुजरी है और उनमें इतनी सहिष्णुता भी सिर्फ इसलिए आई है क्योंकि मौजूदा परिस्थितियों में सावरकर, हेडगेवार और गोलवलकर का कट्टर हिंदुत्व उनके लिए असुविधाजनक हो गया है. इस बदलाव को समझना भी दिलचस्प होगा.
कट्टर हिंदुत्व से परे एक उदार हिंदू दृष्टि भी है जो महात्मा गांधी से खाद-पानी ग्रहण करती है और यह धर्मनिरपेक्षता को सर्वधर्म समभाव तक ले जाती है. गांधी ने राम राज्य की परिकल्पना की. यह राम राज्य एक अमूर्त शासन व्यवस्था है. बहुत-सी राम कथाओं की तरह उनमें कल्पित राम-राज्य की अवधारणाएं भी भिन्न-भिन्न हैं. अगर किसी भी रामकथा का गहराई से विवेचन करें तो जो राम-राज्य की जो तस्वीर उभरती है वह वर्णाश्रमी, कर्मकांडी और भाग्यवादी राज्य होगा. गांधी अपनी मृत्यु के दो-एक वर्ष पहले तक जन्माधारित वर्ण व्यवस्था में विश्वास करते थे. वे जब भविष्य के भारत राष्ट्र की बात करते थे तब उनकी वाणी और व्यवहार में हिंदू प्रतीक उभरते थे. अपनी सारी अच्छी भावनाओं के बावजूद गांधी का व्यवहार मुसलमानों के मन में संशय पैदा करता था. मुस्लिम मध्य वर्ग का यह विश्वास देश के विभाजन के पीछे के बहुत से कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण रहा है. लेकिन कितनी विडंबना की बात है कि जो महात्मा गांधी जी को हिंदुत्व को स्वस्थ-सुरक्षित रखने की कोशिश में लगे थे किंतु हिंदू कट्टरवादी उनको मुस्लिमपरस्त समझते रहे.
देश का कट्टर हिंदुत्व एक ओर तो हिंदू को एक ऐसे धर्म के रूप में पारिभाषित करने की कोशिश करता है जिसमें शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध, सिक्ख, आर्यसमाजी, सनातनी बहुत सारे पंथ सम्मिलित हैं. यदि उनकी मानें तो भारत राष्ट्र की भौगोलिक सीमा में रहने वाले सभी हिंदू हैं किंतु दूसरी तरफ वे मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदू मानने से इनकार करते हैं. हिंदुत्व के सबसे बड़े व्याख्याकार सावरकर के अनुसार, वही व्यक्ति हिंदू है जो सिंधु स्थान हिंदुस्तान को केवल पितृभूमि ही नहीं अपितु पुण्यभूमि भी स्वीकार करता है. लगभग उन्हीं शब्दों में आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर ने भी मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदू के दायरे से अलग रखने के तर्क दिए हैं. इसके विपरीत ये दोनों दुनिया के दूसरे हिस्सों में रहने वाले हिंदुओं को भारत से भौगोलिक दूरी के बावजूद इसलिए हिंदू मानने के लिए तैयार हैं क्योंकि उनके आराध्य देवताओं की भूमि भारत है. गोलवलकर ने बिना किसी लाग-लपेट के अपनी पुस्तक विचार नवनीत अर्थात बंच आॅफ थॉट्स में हिंदुओं को इस बात का स्मरण कराने का प्रयत्न किया है, वास्तव में वे ही एक राष्ट्र हैं. माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने कई जगह यह लिखा है कि मुसलमानों को भारत में पूर्ण नागरिक अधिकार नहीं मिलना चाहिए. यदि उन्हें इस देश में रहना है तो उन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनकर रहना पड़ेगा. इस तरह के पंथनिरपेक्ष नेतृत्व से समकालीन अर्थों वाली धर्मनिरपेक्षता की अपेक्षा करना उचित नहीं होगा.
धर्मनिरपेक्षता के समर्थक अक्सर इतिहास में उसकी जड़ें तलाशने की कोशिश करते हैं पर संभवत: इतिहास का कोई कालखंड ऐसा नहीं है जिसमें राज्य और धर्म को उस तरह से अलग किया जा सकता है जैसा धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक परिभाषा में वांछित है. भारतीय परंपरा में कई मौके ऐसे आए हैं जब धर्म की जकड़बंदी कमजोर हुई है. चार्वाक ने वेदों के अपौरुषेय होने की मान्यता को चुनौती दी पर वे राज्य के बुनियादी ढांचे में बहुत खरोंचे नहीं लगा पाए. ब्राह्मणों ने राज्य से मिलकर उन्हें शारीरिक रूप से तो नष्ट किया ही, उनका रचित सब कुछ भ्रष्ट कर उन्हें आत्मिक रूप से भी मार दिया. लोकायत की ही परंपरा में गौतम बुद्ध भी आएंगे जिनके आंदोलन ने पांच सौ वर्षों तक ब्राह्मण दर्शन को गंभीर चुनौती दी और उसके फलस्वरूप अपेक्षाकृत उदार राज्य संभव हो सका. अशोक के एक शिलालेख में उल्लिखित है कि राज्य सभी धर्मावलंबियों के साथ समानता का व्यवहार करेगा. पहली शताब्दी आते-आते ब्राह्मणों ने फिर राज्य पर कब्जा जमा लिया और एक बार फिर उसी अनुदार और असहिष्णु राज्य के दशर्न हमें होते हैं जो अपने विरोधी विचार को सहन करने के लिए तैयार नहीं था. मध्ययुग में भक्ति आंदोलन ने भी वर्णव्यवस्था और कर्मकांडों पर आधारित जकड़बंदी को झकझोरा. इस दौर के अधिकतर कवि शूद्र और अतिशूद्र जातियों से आते थे. लोकभाषाओं को रचना का माध्यम बनाकर इन कवियों ने संस्कृत और ब्राह्मण रहस्यवाद को तार-तार कर दिया था. पर भक्ति आंदोलन का असर इतना नहीं पड़ा कि आधुनिक संदर्भों वाला राज्य अस्तित्व में आ सके.
इन सारे उदाहरणों के बावजूद भारतीय परंपरा में ऐसे बीज तलाशना लगभग असंभव है जिन पर आधुनिक अर्थों में धर्मनिरपेक्षता का वट वृक्ष पनप सकता था. पश्चिम से धर्मनिरपेक्षता की बयार आने के पहले लगभग पांच सौ वर्षों तक भारत में मुस्लिम राज्य रहा है. क्या हम उस परंपरा में धर्मनिरपेक्षता के बीज तलाश सकते हैं ? हिंदू या ईसाई परंपराओं की तरह इसमें संशय की कोई गुजांइश नहीं है. यह कहना बहुत स्वाभाविक होगा कि अपनी परंपरा को श्रेष्ठ मानने वाला कोई भी दर्शन दूसरी परंपराओं को बराबरी का हक देने के लिए तैयार नहीं हो सकता और न ही श्रेष्ठता के अहंकार में चूर यह दर्शन किसी ऐसे राज्य की कल्पना कर सकता है जिसका संचालन उसके द्वारा प्रतिपादित नियमों और मान्यताओं से न होता हो.
भारतीय संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक समझ आस्था पर विवेक की जीत से जुड़ी हुई है. धर्मनिरपेक्ष राज्य के अस्तित्व के लिए यह नितांत आवश्यक है कि धर्म उसके दैनिक कार्य की धुरी न बन जाए, धर्म का दखल नागरिकों के व्यक्तिगत जीवन तक सीमित रहे, राज्य लौकिक समस्याओं का हल धर्म में न तलाशे और अपने सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार करे. यह तभी संभव होगा जब राज्य आस्था के मुकाबले विवेक को तरजीह देगा. ऐसा कर ही प्रगतिशील, वैज्ञानिक और बराबरी का समाज बनाया जा सकता है.
(यह आलेख मैंने ‘धर्मनिरपेक्ष भारत’ के लिए 2015 में लिखा था)