*दृष्टिकोण*
माना मेरी ज़िन्दगी तुम्हारे बिन अधूरी है,
मगर तुम्हारी भी हो,
यह तो नहीं जरूरी है ;
तुम पुरुष हो,
अपने अस्तित्व की सार्थकता
तलाश लेते हो समाज में –
अपने नाम की महता ढूंढ लेते हो,
अपने पद में,
अपने कामकाज में –
यूँ बंधे तो हो तुम भी
कई रिश्तों में –
पर खुद को जिया है कभी क्या,
तुमने किश्तों में –
हमारी बात और है,
हम रिश्तों में ही अपना संसार ढूंढते हैं –
अपना सर्वस्व लुटाकर
दुनिया में
बस एक क़तरा प्यार ढूंढते हैं।