तुम्हीं हो
दशरथ और संपूर्ण रघुकुल का, झिलमिलाता चिराग तुम्हीं हो।
रक्षक-स्वामी, हो अंतर्यामी, सिया प्रीत का मधुर राग तुम्हीं हो।
धर्म-कर्म या फिर चाहे मर्म, हर कसौटी का परित्याग तुम्हीं हो।
जिसमें सुगन्धित पुष्प खिलते हैं, ऐसा हरा-भरा बाग़ तुम्हीं हो।
पिता दशरथ की विवशता हो, माॅं कौशल्या की धीर तुम्हीं हो।
हर अयोध्यावासी के मन की, शान्त और गहरी पीर तुम्हीं हो।
बालपन में ताड़का मारी, गुरु विश्वामित्र के परमवीर तुम्हीं हो।
रण में जीत का परचम लहराया, ढाल और शमशीर तुम्हीं हो।
सदा वचन के प्रति रहो आबद्ध, ऐसा निष्ठावान मित्र तुम्हीं हो।
जिसमें समस्त भाव रंग उकेरें, ऐसा मनमोहक चित्र तुम्हीं हो।
जिसके निर्देशों पे सृष्टि डोले, वो जग संचालक तंत्र तुम्हीं हो।
जो मानव को भाव पार उतारे, ऐसा शाश्वत गुरुमंत्र तुम्हीं हो।
विचलन करते हुए संसार में, आकांक्षाओं का विश्राम तुम्हीं हो।
सारा विश्व जिनकी पूजा में लीन, आस्था के चारधाम तुम्हीं हो।
जो आज जग-जाहिर हो गया है, धर्म का पुण्य काम तुम्हीं हो।
कलयुग में हो जिनका चर्चा, त्रेता युग के प्रभु श्रीराम तुम्हीं हो।