*डायरी के कुछ प्रष्ठ (कहानी)*
डायरी के कुछ प्रष्ठ (कहानी)
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16 सितंबर 1965
आज दिल्ली से न्यूयॉर्क के लिए जो फ्लाइट में बैठा तो आंखों में ढेरों सपने थे । भारत की गरीबी हर क्षण पीछे छूटती जा रही थी। अभाव और विवशताओं में जीने की दिनचर्या से अब कभी दो-चार नहीं होना पड़ेगा । सोचता हूं कितना गिरा-पड़ा हमारा जीवन स्तर रहा । जिस मकान में रहते थे वह साठ साल पुराना था । शायद उससे भी कहीं ज्यादा । साठ साल पहले तो उसके टूटे हुए लेंटर को मरम्मत करके नया करवाया गया था । फिर भी जब बरसात आती थी तो टपकने लगता था ।
बिजली शहर में कभी आती थी और कभी चली जाती थी । पढ़ाई के दिनों में भी जब तक अपने घर में रहकर पढ़ाई की ,यही समस्या थी । सच पूछो तो पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं होता था ।
जिस मोहल्ले में हम रहते थे ,वहां की नालियां कूड़े-कचरे से हमेशा भरी रहती थीं। जब सफाई होती थी तो एक दिन तो ठीक नजर आती थीं, अगले दिन फिर वही बदबू और सड़ांध । आदत पड़ने लगी थी इन सब के बीच रहने की । आश्चर्य की बात तो यह है कि गली के नुक्कड़ पर ढेरों कूड़ा पड़ा रहता था और उसके आगे से कोई भी नाक पर रुमाल रखकर नहीं गुजरता था । सब बदबू के अभ्यस्त हो चुके थे । मैंने बचपन में ही सोच लिया था कि मुझे इस नर्क में नहीं रहना है । अमेरिका मेरा सपना था । अगर धरती पर कहीं कोई स्वर्ग है ,तो वह अमेरिका ही है ।
मेरा सौभाग्य ! मुझे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका जाने का अवसर मिल गया और मैं एक नर्क से छुटकारा पा सका । फ्लाइट में बैठकर दिल्ली से न्यूयॉर्क जाते समय यही सब विचार थे जो मुझ में उत्तेजना पैदा कर रहे थे । मैं अपने सपनों से मुलाकात बहुत जल्दी करूंगा ।
एयरपोर्ट पर काफी रिश्तेदार मुझे छोड़ने के लिए आए। सबने मुझे बधाई दी । मैं जानता हूं कि मेरे छोटे भाई और भतीजे ,मेरी बहनें, मेरी भाभियाँ, सब इस प्रलोभन के कारण मुझे बधाई दे रहे हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि अब मैं उस देश में जा रहा हूं जहां पैसा ही पैसा है । शायद उन्हें उम्मीद है कि जब मैं ढेरों कमा लूंगा तो उस बरसात के कुछ छींटे उनके पास तक भी पहुंचेंगे । उनका सोच गलत नहीं है । मुझे भारत से तो संबंध बनाकर रखने ही होंगे। कुछ समय के अंतराल पर पर्यटन के तौर पर ही सही ,मैं भारत तो आया ही करूंगा । एक दिन अपने पुराने घर और मोहल्ले में रहकर फिर दिल्ली और दूसरे शहरों की सैर पर निकल जाऊंगा । लेकिन हां ! अम्मा की आंखों की उदासी को मैंने पढ़ने में जरा भी देर नहीं लगाई । वह अंत तक गुमसुम ही रहीं। बस इतना ही कहा “तुम खुश रहना।”
मैं जानता हूं अम्मा मेरे जाने से खुश नहीं हैं । चाहती थीं कि जो भी नौकरी ,काम-धंधा हो -अपने शहर में हो। पुरखों के घर में रहकर घर को अच्छा करो। मोहल्ले को खूबसूरत बना लो और शहर में चार चांद लगा लो । अम्मा पुराने हिसाब से सोचती हैं । अब न तो परोपकार का जमाना है और न ही इस तरीके से नए समाज का निर्माण हम कर सकते हैं। फिर हमें इस बात की क्या पड़ी है कि हम ही सारे संघर्ष करते फिरें । पचास साल में जिंदगी खत्म हो जाएगी और संघर्ष तब भी अधूरा नजर आएगा । अम्मा रोईं नहीं ,बस इतना ही बहुत हुआ । वरना हो सकता था ,मैं जाते-जाते भी रुक जाता । मैं उन्हें रोता हुआ छोड़ कर तो शायद नहीं जा पाता।
18 अक्टूबर 1966
आज लिली के साथ मेरी शादी हो गई। अच्छी लड़की है । माता-पिता अमेरिकन हैं। पता नहीं कब से वहां रहते हैं ? कितनी पीढ़ियों से हैं ,मुझे नहीं मालूम ? अमेरिका में हम इन सब चीजों को ज्यादा महत्व देते भी नहीं हैं । मेरे लिए इतना पर्याप्त है कि लिली एक सुंदर लड़की है । बातचीत में सम्मोहन है । कुछ महीने पहले वह हमारे कार्यालय में नौकरी पर नई नई आई थी । एक नजर में ही उसने मुझे अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। शायद वह भी मुझ से प्रभावित थी। हम दोनों का आपस में मिलना-जुलना शुरू हो गया। कभी किसी कैंटीन में और कभी पार्क में हम लोग घंटों एक दूसरे की आंखों में आंखें डाल कर समय को बांध लेने की कला सीख गए थे ।
स्त्री और पुरुष में गजब का आकर्षण होता है । सच पूछो तो यही जीवन है । आप चाहे इसे स्वार्थ कहो या विलासिता ,प्रेम कहो या वासना ,जिंदगी का केंद्र बिंदु स्त्री और पुरुष का आकर्षण ही होता है । इसी में जीवन का सार है । बहुत जल्दी ही मुझे महसूस होने लगा कि मैं लिली के बगैर नहीं रह सकता । उसके शरीर से जो गंध आती है, वह मदहोश करने वाली होती है । जब मैं लिली के पास होता हूं ,तब मुझे दुनिया में कुछ भी याद नहीं रहता ।
लिली ने मुझसे शादी करने के लिए हां कह दी और मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। मेरा सौभाग्य । मैं जितना खुश अमेरिका आकर हुआ था ,उतना ही खुश आज लिली से विवाह करते समय हो रहा हूं । भारत में मैंने अपने निर्णय की सूचना फोन द्वारा दे दी थी । सब ने बधाई दी । सिर्फ अम्मा ने कहा” अब तू पराया हो गया । अब तो भारत आने से रहा ।”और फिर फूट-फूट कर रोने लगीं। उनके रोने की आवाज सुनकर मुझे बुरा तो बहुत लगा लेकिन अब एक साल पहले वाली बात नहीं थी कि मैं अमेरिका जाना स्थगित करके भारत में ही रुक जाता । अब मेरा रास्ता अलग था और भारत की तरफ पीछे मुड़कर देखने का सवाल ही नहीं उठता । मैं अमेरिका की रंगीनियों में खो रहा हूं।
10 जून 1986
अमेरिका में आए हुए और यहां पर बसे हुए दो दशक हो गए । यहां की जिंदगी सचमुच रंगीनियों से भरी हुई है । मेरे स्वभाव और आदर्शों के अनुरूप । मैं खुशियों को ज्यादा से ज्यादा मुट्ठी में भर कर जीना चाहता था। यहां वह सब कुछ है । अब अमेरिका में मेरा अपना एक परिवार बन गया है । मैं ,मेरी पत्नी लिली और दो बच्चे । दोनों की पढ़ाई और पालन-पोषण अमेरिका की परिस्थितियों के अनुरूप हुआ है । हमने इस बात का बिल्कुल भी ध्यान नहीं किया है कि हमारा कोई संबंध भारत से है। इसकी जरूरत ही नहीं थी । अब भारत अतीत की वस्तु बन चुका है । अम्मा के निधन को शायद बारह साल हो गए हैं । उससे कुछ पहले ही पिताजी की भी मृत्यु हो गई थी। भारत में भाइयों और भतीजों को अक्सर फोन कर लेता हूं । सब मेरे भारत आने का इंतजार करते हैं । शायद मेरे कीमती गिफ्ट के लालच में ! मैं और लिली उन्हें निराश नहीं करते । हमें मालूम है कि संबंध सिवाय लोभ के और कुछ नहीं होते । दुनिया गिफ्ट देने और प्रेम लेने के व्यवसाय पर टिकी हुई है।
3 जनवरी 2015
मेरी आयु पिचहत्तर वर्ष हो चुकी है। लिली मुझसे छह महीने छोटी है लेकिन उसे भूलने की बीमारी हो चुकी है । सिवाय मेरे वह किसी को नहीं पहचान पाती । मैं लिली से प्रतिदिन मिलता हूं । एक दिन भी उससे मिलना नहीं छोड़ता । पिछले तीन साल से लिली अस्पताल में भर्ती है । उसकी देखभाल घर पर नहीं हो सकती थी । कई साल तक तो मैंने पूरी कोशिश करके लिली की घर पर ही देखभाल की । उसे समय पर खाना खिलाया । लेकिन उसकी भूलने की बीमारी बढ़ती ही गई । दस मिनट पहले अगर मैंने खाना खिलाया है तो वह दस मिनट में ही भूल जाती थी और कहती थी कि तुमने मुझे खाना नहीं खिलाया । मजबूर होकर मुझे दोबारा खाना खिलाना पड़ता था। कभी कपड़े पहनना भूल जाती थी। कभी घर का रास्ता उसे पता नहीं रहता था। कमरे से निकलकर रसोई तक कैसे जाया जाए ,कई बार तो उसे यह भी याद नहीं रहता था । कोई दुर्घटना न हो जाए ,इस सावधानी को बरतते हुए मैंने लिली को अस्पताल में भर्ती करना ही उचित समझा।
अमेरिका में कौन किसको पूछता है ? यहां प्रेम भी एक व्यवसाय है । अपनत्व लोभ का दूसरा नाम है । जीवन का आनंद उठाना ही यहां की दिनचर्या है । मैं चाहता तो बड़ी आसानी से लिली को उसके हाल पर छोड़ सकता था । लेकिन सच पूछो तो मुझे उससे प्यार हो गया है । अमेरिका में यह शब्द कुछ दूसरा ही अर्थ रखता है । इसका मतलब स्वार्थ ,वासना और विलासिता है। लेकिन मेरा कोई स्वार्थ नहीं है । मैं लिली को दिल की गहराइयों से प्यार करता हूं । केवल उसके लिए सोचता हूं और उसकी भलाई के लिए ही मेरा जीवन है । एक पति के रूप में मेरा ख्याल है कि मैं लिली की देखभाल करके अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूं।
कई बार मेरी समझ में नहीं आता कि मैं उन्हीं दकियानूसी विचारों में क्यों बँधता जा रहा हूं जिन्हें मैं भारत में पचास साल पहले छोड़ कर आया था । मुझे अक्सर अम्मा की याद आ जाती है । उनके प्यार के पीछे भी तो कोई स्वार्थ नहीं था । वह मुझसे प्यार करती थीं, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं । जैसा प्यार अम्मा का मेरे प्रति था, कुछ-कुछ वैसा ही मैं लिली के प्रति अपने प्यार में गंध पाता हूं । शायद अमेरिका में पचास साल रहने के बाद भी मैं भीतर से अभी तक एक भारतीय हूँ।
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लेखक: रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश )
मोबाइल 99976 15451