गज़ल :– व्यंग ……मुँह मथानी हो गय़ा !!
ग़ज़ल :– व्यंग….. मुँह मथानी हो गय़ा !!
बहर :–
2122—2122—2122—212 =26
चंद पैसों की तपिश में वो गुमानी हो गय़ा !
छाछ सी खट्टी जुबां अरु मुँह मथानी हो गय़ा !!
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उम्र बढ़ते बाप-दादों का पता अब तक नहीं !
खैरियत क्या पूछ ली वो खानदानी हो गया !!
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इक हुआ प्रस्ताव पारित चार झन के जोर से !
चौक उसके नाम का वो राजधानी हो गय़ा !!
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रौब से अब रंग बदला चाल कमसिन हो गई !
ख्वाब में उड़ता रहा वो आसमानी हो गय़ा !!
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क्या कहें तारीफ़ में वो हैं लताड़े जा चुके !
आसरा हम कर लिये वो स्वाभिमानी हो गय़ा !!
कवि – अनुज तिवारी “इन्दवार”