गुड्डी
गुड्डी सी उड़ती जीवन काया
शहद पिलाती थी महामाया
पात्र जो छूटा, सब जग रूठा
बचपन नहीं रहा अब भींत (पास/भीतर)
मृग सा प्यासा उसको ढूँढू
बता दो तुम, कहाँ हो मीत ?
बिसर गया जीवन से रंजन
शेष नहीं अब इसका गुँजन
जीवन है अब अकथ परिश्रम
धूरी खा हँफ्ताए यौवन
पर
रक्षित था मैं, रक्षक था बनना
गरल बुझा, अमृत सा बनना
ज़िम्मेदारियों की बोरी ओढ़ी
बचपन सपनों में, अब भी सहेली।।