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9 Mar 2019 · 1 min read

गीतिका

ख़ुशियों की लक़ीरों को ये किसने मिटाया है
जब देखा हथेली तो बर्बादी ही पाया है

मैं कैसे करूँ कोई दुनिया से शिक़ायत भी
हमनें तो मुक़द्दर में बस दर्द लिखाया है

लगता है ग़रीबी ये जीने न मुझे देगी
बस फिक़्र-ए-रोटी ने दिन रात सताया है

आने ही नहीं पाती ख़ुशियाँ मेरे आँगन में
वो कौन है के जिसने ये पर्दा लगाया है

ग़मख़्वार हमारा है दुनिया मैं नहीं कोई
हर दर्दो-सितम हमनें तन्हा ही उठाया है

इक रोज़ रहम हम पर अल्लाह करेगा ही
इस हौसले ने दिल को उम्मीद बँधाया है

क्यों जीने नहीं देता मुफ़लिस को जहां “प्रीतम”
बेदर्द ज़माने ने हर रोज़ रुलाया है

प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)

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