“गांव से दूर”
जब मार्च-जून महीने में, मन के एहसास बदलते हैं।
जब मध्याह्न पीपल के नीचे, सर-सर तेज हवा की धुन सुनाई देती हैं।
जब दूर खड़ी दोपहरीया, झिलमिल-झिलमिल करती हैं।
जब धूल फांकती तेज हवाएं, लू बनकर चलती हैं।
जब दोपहर तेज धूप में, सब पलकें दबाकर चलते हैं।
जब बाबा के मृदुल ध्वनि, मेरे कानों में पड़ते हैं।
जब छोटे-छोटे आंखों में, सपने बड़े सजते हैं।
जब गांव की यादें तूफान बनकर सीने में उठते हैं।
तब गांव से दूर रहना दुश्वारी लगता है••••••
आस लगा सीने मे मरना भी भारी लगता है।
जब दूर-दूर दृश्य, धूल-धूल दिखाई देते हैं।
जब आग उगलती धरती पर,लोग पांव बचाकर चलते हैं।
जब धूप में छांव राहगीर कहीं तलाशते हैं।
जब प्यास बुझाने को लेकर खेतो में पानी जाते हैं।
जब खेत-खलिहानों में पहरे लगायें जाते हैं।
जब शाम ढले छाया छत से,गलियों मे देर से आते हैं।
जब एक जुबान पर बाबा के,साथ दूर चले जाते है।
जब अपना हर मन चाहा काम अधबना लगता हैं।
तब गांव से दूर रहना दुश्वारी लगता है••••••
आस लगा सीने मे मरना भी भारी लगता है।
जब दूर दराज़ं इलाकों से, माता की चोटी दिखते हैं।
जब कोयल की कूक सुन, कुछ प्रश्न मन में उठते हैं।
जब झुंड बनाकर बच्चे घर से कोलाहल करके निकलते हैं।
जब फागुन में जगह-जगह, चौतार गाएं जाते है।
जब ढोल, मजीरा, फगुंवा गाते, धूल उड़ा ये जाते हैं।
जब दोपहर बाद देवालयों में गुलाल चढ़ा ये जाते हैं।
जब मेरे गांव(गंभीरवन)की होली, बरसाने से लगती हैं।
तब मेरे काव्य प्रतिभा का, स्वरुप निखरने लगते हैं।
तब गांव से दूर रहना दुश्वारी लगता है••••••
आस लगा सीने मे मरना भी भारी लगता है।।
वर्षा (एक काव्य संग्रह)से/ राकेश चौरसिया