ग़ज़ल
ये कौन छेड़ा तितलियों को खिल न पाये गुल
छिप गये हैं पत्तों में नहीं हाथ आये गुल
हैं अजीब उसकी क्यों मंज़र निगाहों में
देखे मुझे जब भी लगे कि मुस्कुराये गुल
हैं सुर्ख़ होंठ इश्क ने दस्तक दिया है यूँ
लगता है कली बन के कहीं गुनगुनाये गुल
वीरां हैं शहर उजड़ी लगें आज क्यों गलियाँ
ये पूछता है चमन क्यों मुझको सताये गुल
है यूँ खिलाफ़ कुदरत भी ‘महज़’ हवा नही
कँप कँपाये ज़िन्दगी क्यों थरथराये गुल