क्षितिज
मुझे लगता है
दूर कहीं नहीं गई हो
तुम हो
क्षितिज के पास,
इन्तजार करते हुए
दामन में भरकर आश।
मैं चल कर
तुम्हें तलाशता हूँ
मगर तुम
आँख-मिचौली खेलने को
आतुर होकर
आगे बढ़ जाती हो
क्षितिज के पास,
मुझे होता यही अहसास।
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
नेल्सन मंडेला ग्लोबल ब्रिलियंस अवार्ड प्राप्त।