क्यूँकर बंधे हैं हम?
जीवन है असीम,
नहीं बंधा सीमाओं में यह,
तो क्यूँकर बंधे हैं हम,
हवा है स्वछंद खुली खुली सी,
पंछी उड़ते उन्मुक्त उन्मुक्त से,
तो क्यूँकर बंधे हैं हम,
जल की धारा बहती निश्छल-निर्मल,
पेड़ झूम रहे उल्लासित-आनंदित,
तो क्यूँकर बंधे हैं हम,
चौपाए घूम रहे निडर-निर्भीक,
फूल खिल रहें चमन-चमन,
तो क्यूँकर बंधे है हम,
क्योंकि स्वार्थ वश बाँधा,
इन सब को हमने,
बस में करना चाहा प्रकृति को,
आज ले रही कुदरत,
प्रतिकार अपना,
और बंधे है हम,
अपने ही दोष के परिणामस्वरूप,
अपने स्वार्थ हित,
बंधे हैं हम,
इसलिए बंधे हैं हम,
दंड स्वरूप बंधे हैं हम…..