कोविड में भीख
रोटी खाओगे?वाक्य सुनते ही जैसे वो निढ़ाल हो गया।आंखे खिल गयी होठ फैलने लगे।आज तो पेट भर गया पर कल?ये सोचकर उसने अपना सिर पकड़ लिया।अब रोटी ऐसी बस्तु भी नहीं कि जीवन में एक मर्तवा खा ली जाए फिर कभी भूख ही न लगे।उसे घर के बाहर पड़ी कुछ कपड़ों की गठरी एक छोटा सा झोला उठाया और आकाश की ओर दार्शनिक भाव से ताकने लगा।तेज धूप में पसीना निकलने लगा और दो पल में ही पूरी पेशानी पर नमी आ गयी।घर के आहतो और बालकाॅनी से चेहरे उसे लगातार देख रहे थे पर वो लगातार आगे बढ़ता जा रहा था।ड्योढ़ी,बारामदों से ताकते चेहरे या सड़क पर चलता वह आदमी एक-दूसरे से नज़र खींच रहे हैं जैसे कुछ देखा ही न हो।अब ये तो आदम जाति की फ़ितरत ही है कि वो सब देखना ही चाहता है पर स्वयं की महिमा इस तरह ब्यां करते हैं जैसे उनसे कुशाग्र कोई नहीं।आदमी लौट गया!खिड़की,दरवाजे एक-एक करके बंद होते गये।पल भर शून्य जानो नेपथ्य हो।फिर अगला दिन एक नया दृश्य बालकाॅनियों से नये पुराने चेहरे
कल के प्रकरण को नये अंदाज़ में उतारने को तैयार या किसी नये मुफ़लिस को बेपर्दा करने की फ़िराक़ में….
मनोज शर्मा