कोठरी
समाज और घर,
दोनों को,
निभाते हुए,
दिल हुआ पत्थर,
हर रात इसी पर,
कील ठोंककर,
लटका देती,
शिकायतें,
पर, जब,
चांद उगता है,
तो ,ये शिकायतें,
आवाज बन जाती है,
टूटते बदन की,
नाव में,
एक, बरगद को,
ढोकर ,पार लगाती ,
कैदी हुई ,
धडकनों से,
भाप निकलती है,
पैरों को ,
ताकत से ,
उठाकर ,
चल देती ,
और ,देह,
किसी मछली सी,
खारे पानी में,
सिसकती है ,
कानों से ,
होकर,
हवा जब,
गुजरती है,
जाने क्यों,
सुबकने की,
आवाज आती है