स्त्री जब
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एक स्त्री जब, करती है आंख मूंदकर
तुम पर विश्वास, करती है सर्वस्व न्यौछावर
जब टूटते हो तुम जोड़ती है प्यार कर
जब उखड़ते हो तुम रोकती है डांटकर
सजाती है, संवारती है दुनिया तुम्हारी
छिपाती है गलतियां निभाती रिश्ते तुम्हारे
फिर भी तुम रौब जमाते हो , रूठते हो
तो मनाती है, निकालती है न्योहरे
सृजन करती है हर पल तुम्हारे लिए
ऊर्जा, सकारात्मकता, अपनापन
खुद पल पल टूटकर भी सदा
बनाए रखती है तुम्हारी खुशियां
मगर फिर भी गर इज्ज़त न करो उसकी
तो धिक्कार है तुम पर, जल्लाद हो तुम
गर लांछन लगाते हो, शक करते हो उसपर
तो मुंह मोड़ेगी स्त्री जब, देखोगे बर्बादी तुम.
©️ रचना ‘मोहिनी’