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25 Jan 2024 · 2 min read

*क्या आपको पता है?*

टपकता है छप्पर, आशियाना भी टूटा है।
जाड़े गर्मी में रहते नंगे पैर, जूता भी टूटा है।
अरे इन टूटे आशियानों की तुलना हमसे मत करिए,
अरे! साहब खुद को छोड़, कुछ इनके लिए भी करिए।।१।।
गिरता देख औरों को, लोग हंसी उड़ाते हैं।
पता जब चल जाता, जब खुद के पैर उखड़ जाते हैं।
हंसना बंद हो जाता है, जब लगती है टक्कर कहीं।
अच्छाईयां ही रह जाती है, जब हम मर जाते हैं।।२।।
चलता है मिलो दूर, भोजन पचाने को कोई।
कोई भोजन न मिलने के कारण, चल नहीं पता।
यही तो है असमानता, इस जहां में देखिए।
किसी को रोटी नहीं मिलती, कोई रोटी नहीं खाता।।३।।
काश हम यह जानते, अंतःकरण पहचानते।
होता अगर पता यह, परमार्थी में खुद को ढालते।
दवाई नहीं देने को कोई, बच्चा स्कूल नहीं आया।
बीमार पड़ी मां गिन रही सांसे, खाना भी उसने नहीं खाया।।४।।
उदासीनता चेहरे पर, किसी के कोई मुस्कान नहीं।
नौजवानी भी व्यर्थ है, जब पावरफुल का साथ नहीं।
अबला की लुटती अस्मिता, ऐसी तानाशाही।
आदमी भी अब आदमी नहीं, हो गए निर्दयी कसाई ।।५।।
घर पर जवान बेटी, बारात आने को तैयार।
कराह रहा है पिता रोग से, होकर के लाचार।
ईश्वर जाने क्या होगा आगे, विनती बारम्बार?
पूछता हूं क्या गुनाह बेटी का, गरीबी बनी दीवार ।।६।।
खूंखार बैठे हैं रास्तों पर, रास्ते भी बंद हो गए।
जो थे कभी लंबे चौड़े, आज वह तंग हो गए।
घात लगाए बैठे हैं, हर जगह पर भेड़िए।
सच्चे अच्छे ईमानदार भी, उनके संग हो गए।।७।।
कुछ को सम्मान नहीं देते, कुछ को सिर पर बैठाते हैं।
सिर पर बैठने वाले, एक दिन सिर को ही पिटवाते हैं।
सावधान रहना इन लोगों से, यही कहना है मेरा।
चलती जब तक ठीक-ठाक, बिगड़ने पर मेरा तेरा।।८।।
नई नवेली दुल्हन आयी, सुहागरात से पहले।
पति गया सीमा पर लड़ने, रह गई वह अकेले।
पत्नी तड़प रही विराहग्नि में, कैसा है यह खेल।
मर जाता है पति सीमा पर, बौछार गोलियों की झेल।।९।।
नहीं पकपाती किसी के घर, एक वक्त की रोटियां।
जबकि पकती है किसी के घर, बकरे की बोटियां।
कोई ऐसा भी है, जो भूखा ही सो जाता है रात को।
भूखो के साथ सरकार भी जाने, इस बात को।।१०।।
होनी थी किताब जिन हाथों में, हथियार थमा दिए।
पढ़ाई लिखाई छुड़वाकर, काम पर लगा दिए।
कहता है दुष्यन्त कुमार, इन बेगुनाहों का कसूर क्या था।
जो थे हाथ कभी कोमल, उनसे रिवाल्वर बना दिए।।१२।।

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