कोई हमको ढूँढ़ न पाए
कोई हमको ढूँढ़ न पाए
आओ चलकर सीप में बैठें
और मोती बन जायें हम,
कोई हमको ढूँढ न पाए
जी भरकर बतियाएँ हम।
कहीं किसी एकांत शांत सी
जगह पे जायें, ये अभिलाषा,
बीच समंदर नाव में जाकर
मोती भर लायें ये अभिलाषा;
मस्त पवन के संग उड़ें, बन
खुशबू ऐसी अभिलाषा ।
आओ चलकर सीप में बैठें
और मोती बन जायें हम,
कोई हमको ढूँढ न पाए
जी भरकर बतियाएँ हम।
कुछ अभिलाषाएँ हैं मेरी,
कुछ तेरी अभिलाषाएँ होंगी,
कुछ हमने हैं संजोये सपने,
कुछ तेरे होंगे सपने;
मिलकर सपनों की डोर बुनें,
आशा की पतँग उड़ायें हम ।
आओ चलकर सीप में बैठें
और मोती बन जायें हम,
कोई हमको ढूँढ न पाए
जी भरकर बतियाएँ हम।
इस सीपी में आओ चलो-
अपना सँसार बसाते हैं,
सावन से बयार ले आते हैं,
बसंत से बहार ले आते हैं;
इस सीपी में हर मौसम का
एक-एक कतरा ले आते हैं;
फिर इन्द्रधनुष के रंग चुराकर-
इसको जरा सजाएँ हम ।
आओ चलकर सीप में बैठें
और मोती बन जायें हम,
कोई हमको ढूँढ न पाए
जी भरकर बतियाएँ हम।
सावन की मदमाई रिमझिम में-
हम साथ-साथ ही भीगेंगे;
पुरवाई की मादकता का रस-
हम अपनी बातों में लेंगे;
साथ-साथ नभ के तारों को-
छूकर हमको आना है,
साथ हमें समंदर की-
लहरों से होड़ लगाना है;
साथ-साथ पृथ्वी-नभ के-
संगम तक हमको जाना है;
लक्ष्य क्षितिज है, सैर करेंगे
जब तक न थक जायें हम ।
आओ चलकर सीप में बैठें
और मोती बन जायें हम,
कोई हमको ढूँढ न पाए
जी भरकर बतियाएँ हम।
देखो अमवा के पेड़ों पर
फिर छाई बौराई है,
सौ काँटों में निडर, अकेली
काली ने ली अंगड़ाई है;
बाँध तोडकर अपने पे-
बेफ़िक्र नदी इठलाई है;
जंगल के वीराने में एक
उत्सव की रौनक़ छाई है;
ज़ी करता है आज समय से
सूना साज़ बजायें हम;
उम्मीदों की सरगम छेड़ें,
चाहत की ग़ज़ल बनायें हम ।
आओ चलकर सीप में बैठें
और मोती बन जायें हम,
कोई हमको ढूँढ न पाए
जी भरकर बतियाएँ हम।
(c)@ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”