कैसी ये रीत
आज डोली विदा हो रही है
आज बेटी बहू बन रही है
कल तक थी जिगर का टुकडा,
आज वही परायी हो रही है.
कल ही की बात थी,
नन्ही परी बन घर आयी थी,
आँगन में खुशियाँ छायी थी,
उँगली पकड़ चलना सीखती,
कभी माँ तो तो कभी नानी बनती,
बात-बात पर इतराती-इठलाती,
कभी रुठती,कभी मनाती,
दुल्हन बन पति घर चल दी आज,
कैसी रीत,कैसा कायदा,
विदा होते ही पीहर से उसके,
परिवार और हक़दार दोनों बदल गये,
फिर अपना घर कौन सा,
और अपना अस्तित्व क्या,
कभी इस घर तो कभी उस घर.
दो ध्रुवों में बंटी ज़िंदगी,
परम्पराओं के नाम पर पटी ज़िंदगी,
अलग-अलग पाटो में पिसती वो,
हँसती तो कभी रोती वो,
अपना वजूद तलाशते,
बिखरती कभी संभलती वो,
सदियों से अपनों से ही अपने जिस्म को बचाती,
बुरी नजरों से बचने को बदन को चुन्नी से ढकती वो,
युगो से सियासत का मोहरा बन ,
आज भइ अपना अस्तित्व तलाशती वो.