कैफ़ियत
सीने पर रखा जाल परख जाती है
हयात ए शजर की छाल उतर जाती है
समेटअपनी बूँदें दूरियाँ बना लेता है
बादल की कतरन चाल बदल जाती है
हाँफ रहे हैं ख्वाब मेरे साथ दौड़ते
मेरी जाग नींद की ढाल खुरच जाती है
वक्त के पुर्ज़े कुछ कीलों को जड़ते नहीं
लफ़्ज़ों की दीवार सवाल पलट जाती है
छलावों को खर्च किया खुद पर
फ़कत आईने में हाल ए खबर जाती है |