किलकारी भर कर सुबह हुई
किलकारी भर कर सुबह हुई
पग पग चलते हुई दोपहर,
जो शाम हुई थक कर बैठा
आ मृत्यु खड़ी हुई बेपहर।
हंसी खेल में दिन यह बीते
सुधि बिसर गयी निज निलय की ,
काल नटी कर रही हिसाब
छवि दिखा रही महाप्रलय की।
फिर भी भूल मनुज यह करता ,
मानो चला रहा वह संसार ,
सब कुछ है स्वयं संचालित
किंतु हृदय भरा है दम्भ अपार।
जीवन का घट कच्चा बहुत है
दूर-दूर तक सागर अथाह।
कैसे पार चलेंगे हम सब,
प्रत्येक दिशा से उठे कराह।
~ माधुरी महाकाश