कितनी छोटी नांव
कितनी छोटी रात कितनी छोटी रात कितने सपनों के गांव। कितना बड़ा समुंदर कितनी छोटी नाव।
कितना बड़ा रेगिस्तान, मुट्ठी में ज़र-ज़र मिट्टी की काया।
तपती रेत में जल रही उधडे प्राणों की छाया।
क्या होना है क्या करना है, बस हूं दो दिन का मेहमान।
टपक रही है सांसे जैसे देह हो रहा निष्प्राण।
जीवन सफर की दौड़ में, मिला नहीं कोई आसरा।
घर अपना था जिस जगह, दिखा नहीं वो बसेरा।
कांटों भरी धूल डगर पे, नंगे थे मेरे पांव।
दो पल सुकून के जी पाता मिला न ऐसा गांव।
रिश्ते नाते, अपने परायें, हर पल टूटी आंस। अपने अपनों को ही छलते, किसपे करे अब विश्वास। कितनी छोटी रात कितने सपनों के गांव। कितना बड़ा समुंदर कितनी छोटी नाव। ❤ ठाकुर छतवाणी
( श्री मित्रा जसोदा पुत्र)