कामिल नहीं होता
छूट जाता पर कभी कामिल नहीं होता
तिरे बगैर ये म’आनी हासिल नहीं होता
नजर लग जाती तुम्हें आईने की जानेमन
तेरे रु पे गर नुमाया काला तिल नहीं होता
ढक लेती नजर नहीं करती लब कमर तो
हुस्न पे तेरे ऐसे – वैसे ग़ाफ़िल नहीं होता
कुछ तो बात है तुझमे जो अमन ए रिहाल हुआ
वगरना नाज से मैं बहर-उल-काहिल नहीं होता
क्या सितम है दोस्त बाब सब हो जाता उसका
म’गर ‘कुनू’ कभी भी हसीं बिस्मिल नहीं होता