कविता : भावनाओं में बहता मन
कभी भावनाओं में बह मन, नहीं बुद्धि की सुनता है।
उसे सही जो भी लगता है, उसे ख़ुशी से चुनता है।।
लाभ-हानि नहीं देखता है, कदर प्रेम से करता है।
पीर पराई हो या अपनी, एक समझकर हरता है।।
दूर कल्पनाओं में खोकर, शाँति तलाशता कभी है।
ख़ुद को जानना चाहता है, ध्यान लगा मग्न तभी है।।
ध्यान परमशाँति भरे मन में, दया प्रेम भी भरता है।
क्षमा त्याग धैर्य सिखाता है, पीड़ा मन की हरता है।।
भाव समझता औरों के जो, सभ्य वही मन कहलाए।
हँसी उड़ाने वाला मन तो, विष की चादर फैलाए।।
मन बहती सरिता बन बहता, सागर में मिल जाने को।
कुछ औरों की भी सुनता है, कुछ निज व्यथा सुनाने को।।
कभी भटकता कभी सटकता, मायूस कभी हो जाता।
चंचल मन के कितने किस्से, सबको ही नवल बनाता।।
कभी भावनाओं में बह मन, धोखा भी खा जाता है।
लेकिन फिर भी मन ऐसा है, संभल-संभल जाता है।
#आर. एस. ‘प्रीतम’
#स्वरचित रचना