कविता कविता दिखती है
कविता कवि की कलम पकड़कर, खुद को लिखती है।
तब ही, केवल तब ही, कविता, कविता दिखती है।।
कविता कवि के धर्म-कर्म में, जीवन में होती।
कविता कवि के साथ-साथ ही, जगती या सोती।।
परिसीमन पीड़ा का करके, सर्जन करती है।
तब ही, केवल तब ही, कविता, कविता दिखती है।।
कविता शीत-ताप, कविता है मौसम बरसाती।
चिर परिचित से पुनरपि परिचय, कविता करवाती।।
जीवन के खालीपन को, पल-प्रतिपल भरती है।
तब ही, केवल तब ही, कविता, कविता दिखती है।।
इस अनन्त जीवन में जो कुछ, है जीवन्त मुखर।
कविता उसको रूपायित कर, देती ताकत भर।।
बिखर गए जीवन को कविता, फिर-फिर चुनती है।
तब ही, केवल तब ही, कविता, कविता दिखती है।।
अहोरात्रि जैसे जारी है, अवनी का नर्तन।
वैसे ही चलता रहता है, कवि-मन में मंथन।।
कविता दबे पांव जीवन के, पीछे चलती है।
तब ही, केवल तब ही, कविता, कविता दिखती है।।
जब-तब अनायास मिल जाती, जैसे टपका फल।
कभी-कभी मिलते-मिलते, मिलना जाता है टल।।
जो कुछ छूट पकड़ से जाता, उसे पकड़ती है।
तब ही, केवल तब ही, कविता, कविता दिखती है।।
काम रोशनाई से लेती, कालजयी कविता।
हरित पर्ण की भांति सदा, ताका करती सविता।।
मगर दीप के तले अंधेरा, इसे समझती है।
तब ही, केवल तब ही, कविता, कविता दिखती है।।
भीतर के भीतर की भाषा, बाहर की आशा।
परिभाषित जो हो न सके, यह उसकी परिभाषा।।
अनाख्येय के सम्मुख कविता, हरदम झुकती है।
तब ही, केवल तब ही, कविता, कविता दिखती है।।
प्रकृति-पुरुष में, जड़-चेतन में, सदा समायी है।
कविता का व्याकरण न कोई, यह निपुणाई है।।
इसकी उपमा की तलाश में, कीर्ति भटकती है।
तब ही, केवल तब ही, कविता, कविता दिखती है।।
महेश चन्द्र त्रिपाठी