कलम और दौलत
कलम जो जज़्बात की सहेली थी ,
दर्द को उसके वो आवाज़ देती थी ।
ज़माने का सताया शायर जब रोता था,
कलम ही उसके अश्क पोंछा करती थी ।
जब जब इश्क महबूब को सदा देता था ,
यह कलम मुहब्बत के तराने छेड़ती थी ।
जंग ए मैदान में सिपाही को जोश दिलाती,
उसकी बहादुरी के नगमें कलम गाती थी।
गुजरे ज़माने में तो बहुत होते थे कद्रदान ,
और यह कलम उनकी इबादत होती थी ।
ज़माने का दस्तूर ही जब ऐसे बदल गया है ,
रोजगार बन गई जो शौक ए तबीयत होती थी।
अब वैसे कद्रदान भी ना रहे सच्चे हुनर के हुजूर!
बाजार में बिक रही है जो महलों की जीनत थी ।
कलम का सिपाही ही दौलत के आगे झुक गया,
मजबूरी बन गई जो कभी ताकत हुआ करती थी ।
देख कर ऐसे हालात “अनु ” बड़ी मायूस हो चुकी है ,
उन अरमानों का क्या करें जिनकी सदा ही कलम थी ।