Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
30 Jul 2023 · 8 min read

ओमप्रकाश वाल्मीकि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व

डॉ. नरेन्द्र वाल्मीकि के संपादन में कलमकार प्रकाशन, दिल्ली से श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि जी पर प्रकाशित होने जा रही एकाग्र पुस्तक ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ की पांडुलिपि मेरे समक्ष है। सबसे पहले मैं साहित्य एवं समाजकर्म के प्रति समर्पित डॉ. नरेन्द्र वाल्मीकि का शुक्रिया अदा करता हूँ कि उन्होंने मुझे इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक की भूमिका लिखने के बहाने इसका गहन अध्ययन करने का अवसर प्रदान किया।
ध्यातव्य है कि हिन्दी दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि का गहरा योगदान है। वस्तुत: उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से कुलीनता और आभिजात्य संस्कृति के मूल्यों में रचे-बसे हिन्दी साहित्य की सदियों पुरानी जड़ता को तोड़ा और समाज की भाँति साहित्य की चौखट से बाहर उपेक्षित पड़े दलितों को साहित्य के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। उनकी कहन और लेखन के मूल में जहाँ एक ओर बुद्ध का दर्शन, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले तथा बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर की वैचारिकी है, तो वहीं दूसरी ओर मध्यकालीन संत कवि कबीर और रैदास (रविदास) जैसा अदम्य साहस भी है। हिन्दी साहित्य में एक नई बहस को जन्म देने वाले, वाद-विवाद-संवाद में यक़ीन रखने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी साहित्यिक यात्रा ‘कविता’ से शुरू की जिसके बाद यह सिलसिला कहानी, नाटक, आत्मकथा और अनुवाद तक जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि ओमप्रकाश वाल्मीकि न सिर्फ़ एक कवि बने रहे बल्कि एक कुशल अफ़सानानिगार, ड्रामानिगार, आत्मकथाकार और अनुवादक के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए। शायद यह अपवाद ही होगा कि अदब से तअल्लुक़ रखने वाले किसी इंसान ने दो भागों में प्रकाशित ओमप्रकाश वाल्मीकि की आपबीती या आत्मकथा ‘जूठन’ का नाम कहीं पढ़ा-सुना न हो। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने साहित्य में सभी वर्णों के समाज द्वारा थोपे गए नियमों को सीधी चुनौती देते हैं और सभी किस्म के आस्था-केन्द्रों से लेकर भाग्य, नियति आदि के विरूद्ध जाकर उनके पीछे व्याप्त स्वार्थ एवं षड्यन्त्र को उजागर करते हैं। दलित साहित्य के इस पुरोधा की खासियत यह रही कि उन्होंने साहित्य जगत में एक नई दुनिया की तलाश नहीं की, बल्कि सैंकड़ो वर्षों से द्विज साहित्य जिन सच्चाइयों को छुपाने का प्रयास कर रहा था, उसे साहसिक तरीके से सार्वजनिक किया।
सोलहवीं शताब्दी के एक कवि जॉन डन ने एक जगह लिखा था, ‘‘कोई भी व्यक्ति अपने आप में एक द्वीप नहीं है।’’ हमारी भौगोलिक उत्पत्ति, जाति, लिंग, श्रेणी, भाषा, राजनीति, वांशिक प्रथा, व्यवसाय और सामाजिक प्रतिबद्धताएँ हमें विभिन्न समूहों का सदस्य बनाती हैं। इनमें से प्रत्येक समूह, जिससे व्यक्ति संबंधित है, उसे एक विशेष पहचान प्रदान करता है, पहचान की यह भावना अन्य लोगों यथा पड़ोसी, उसके समुदाय के सदस्यों, साथी नागरिकों अथवा एक ही धर्म का पालन करने वाले लोगों के साथ, संबंधों में ताकत पैदा करने में अपार योगदान कर सकती है और उसी पहचान से आघात भी पहुँच सकता है। दलितों के संदर्भ में जाति रूपी पहचान वस्तुत: अन्य तथाकथित जातीय समूहों से विवाद, विस्थापन और अंतत: पुनर्वास अथवा विस्थापन का कारण बनती भी आई है। ओमप्रकाश वाल्मीकि समेत दलित साहित्यकारों की रचनाओं में इस मुद्दे को बखूबी देखा जा सकता है।
इस पुस्तक में कुल इकतालीस लेख हैं, जिनमें डॉ. एन. सिंह, डॉ. कर्मानंद आर्य, द्वारका भारती, डॉ. जी. रेणुका, लवकुमार ‘लव’, राज वाल्मीकि, डॉ. शशि कुमार शर्मा, पुष्पा विवेक, निलेश देशमुख और डॉ. नीलम देवी के लेखों में ओमप्रकाश वाल्मीकि के व्यक्तित्व और रचनाशीलता को समग्रता में उकेरा गया है। इनमें डॉ. कर्मानंद आर्य की पंक्तियाँ खासतौर पर ध्यान आकर्षित करती हैं- ‘जापानी लोग समय और येन बहुत ही सावधानी से खर्च करते हैं। वे वक्त के पाबंद होते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि भी शब्दों के ऐसे ही मितव्ययी हैं। अनुभूति और अभिव्यक्ति में उनका कोई सानी नहीं है।’
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ नामक लेख डॉ. सुशीला टाकभौरे ने लिखा है। यह अपने किस्म का इकलौता लेख है, जिसमें वाल्मीकि जी की सैद्धांतिक पुस्तक ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ की विशेष विवेचना की गई है। हम जानते हैं कि हिन्दी साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र संस्कृत और पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र पर आधारित है। इसलिए उसकी कसौटियाँ दलित साहित्य के मूल्यांकन में अक्षम साबित होती हैं। दलित साहित्य की केवल साहित्य के रूप में समीक्षा होनी चाहिए। चूँकि यह दलितों द्वारा रचित साहित्य है, इसलिए सहानुभूति का नजरिया अपनाकर इसकी स्तुति करना पूर्णतः अनुचित है। वाल्मीकि ने दलित साहित्य की अवधारणा, उसकी प्रासंगिकता, दलित मान्यताएँ, प्रवृत्तियाँ, दलित-चेतना का अर्थ क्या है, दलित साहित्य की भाषा कैसी है या होनी चाहिए जैसे सवालों से दो-चार होते हुए सौन्दर्यशास्त्र की विवेचना में सौन्दर्य’, ‘कल्पना’, ‘बिम्ब’ और ‘प्रतीक’ को प्रमुख मानने वाले विद्वानों का प्रतिपक्ष रचते हुए दलित साहित्य के सौन्दर्य की परख के लिए सामाजिक यथार्थ को प्रमुख घटक मानने पर बल दिया है। डॉ. सुशीला टाकभौरे ने पुस्तक के विभिन्न पक्षों पर विचार करते हुए अनेक चिंतकों के मतों को भी सामने रखा है।
जूठन, जो कि उनकी आत्मकथा है, के दोनों भागों पर कुल नौ लेख हैं, जिनमें डॉ. एन. सिंह, डॉ. राम चंद्र, डॉ. अजय कुमार चौधरी, डॉ. अमित धर्मसिंह, सुरेश कुमार, कुमारी अनीता और अनिल बिड़लान ने जूठन के प्रथम खंड पर और डॉ. अनिल कुमार तथा डॉ. पुनीता जैन ने जूठन के दूसरे खंड पर लिखा है। इनमें अमित धर्मसिंह का लेख ‘जूठन में ‘सरनेम’ की त्रासदी’ और डॉ. रामचन्द्र का लेख ‘जूठन’ में अभिव्यक्त दलित वेदना एवं चेतना विशेष रूप से पठनीय हैं।
प्रो. नामदेव, डॉ. चैनसिंह मीना, उषा यादव, डॉ. राम भरोसे, डॉ. दिनेश कुमार यादव, डॉ. दिनेश राम, ज्योति पवार, तरुण कुमार, डॉ. प्रतिमा प्रसाद, रमन कुमार और धंनजय मल्लिक ने वाल्मीकि जी की कविताओं को केंद्रित कर अपने शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं, जिन्हें पढ़ते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि की कलम की तीखी धार से निकले शब्दों के बहुआयामी अर्थों का पता चलता है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों पर इस पुस्तक में डॉ. नीलम, डॉ. प्रियंका सोनकर, सतवंत कौर, डॉ. एन.एस. परमार और डॉ. आलोक कुमार द्वारा लिखित पाँच लेख शामिल हैं, इनमें डॉ. नीलम का स्त्री प्रतिरोध के नजरिए से और प्रियंका सोनकर का सामाजिक प्रतिबद्धता की दृष्टि से लिखा गया आलेख काबिले-गौर है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ‘दो चेहरे’ नामक एक नाटक भी लिखा था, जिस पर डॉ. अनुरूद्ध सिंह ने लिखा है और अंत में डॉ. राजेश पाल द्वारा ‘सामाजिक व्यवस्था में बीच का कोई रास्ता नहीं होता’ नाम से एक आत्मीय संस्मरण भी रखा गया है, जो ओमप्रकाश वाल्मीकि के व्यक्तित्व, सामाजिक व्यवहार और उनके लेखन के वैशिष्ट्य को हम सबके सामने रखता है।
वस्तुत:, किसी को आमतौर पर दो ही रूपों में याद किया जाता है, या तो उसके अच्छे कामों के कारण या फ़िर उसके बुरे कामों के कारण। अक्सर बुरे काम करने वाले को याद करने के बजाय भुलाने के प्रयास ज्यादा होते हैं, यानी कोई व्यक्ति हमें अपने अच्छे कामों की वजह से बार-बार याद आता है। वे लोग, जिनके कामों से हमें सीधे-सीधे कोई भौतिक लाभ या वैचारिक प्रेरणा मिलती हो, हमारे याद किए जाने का बायस बनते हैं। इस क्रम में हम निजी रूप से अपने बाप-दादाओं को याद करते हैं और सामाजिक रूप से अपने समाज के प्रेरक व्यक्तित्वों को..बुद्ध, कबीर, पेरियार, ज्योतिबा फ़ुले, रमा बाई, डॉ. अंबेडकर आदि ऐसे ही प्रेरक व्यक्तित्व हैं, जिनके कामों के कारण आज हम इस मजबूत स्थिति में आ पाए हैं कि कोई कार्यक्रम आयोजित कर पा रहे हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि भी इसी कोटि मे रखे जाने चाहिए, क्योंकि उनके लिखे ने हमें वह दिया है, जो बुद्ध, कबीर और अंबेडकर की तरह हमें लगातार जातिवादी खंडों में बँटे भारतीय समाज की वास्तविक, कटु और जटिल सच्चाइयों से रू-ब-रू करवाता है।
28 जून, 2020 को लेखक व जागरूक समाजकर्मी रमेश भंगी ने फ़ेसबुक पर एक पोस्ट लिखी- ‘मैं प्लाट पर निर्माण कार्य के संबन्ध में लोनी में हूं। मैं प्लाट में बैठा हूँ। पत्नी पड़ोसिनों के साथ बैठी है। जान पहचान के संदर्भ में मेरी पत्नी ने पूछा “कौन जात है वो (कोई पड़ोसिन)। जात पूछना नाम पूछने जैसा है ग्रामीण इलाकों में।‘ ये तरक्की की है हमने। भारतीय समाज की संरचना का जिसे थोड़ा भी ज्ञान होगा, वह समझ सकता है कि ‘दलित’ होने का अर्थ क्या होता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने लेखन में इस पीड़ादायी स्थिति के ही विभिन्न चित्र खींच रहे थे और हम सबके सामने रख रहे थे। आप उनकी कविताएँ पढ़ें, सदियों का संताप, बस्स! बहुत हो चुका, अब और नहीं, शब्द झूठ नहीं बोलते, जैसे कविता-संग्रहों से, सलाम, घुसपैठिए, अम्‍मा एंड अदर स्‍टोरीज, छतरी जैसे संग्रहों से उनकी कहानियाँ पढ़ें, जिनमें ‘सलाम’, ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’, ‘रिहाई’, ‘सपना’, ‘बैल की खाल’, ‘गोहत्या’, ‘ग्रहण’, ‘जिनावर’, ‘अम्मा’, ‘खानाबदोश’, ‘कुचक्र’, ‘घुसपैठिये’, ‘प्रमोशन’, ‘हत्यारे’, ‘मैं ब्राह्मण नहीं हूं’ और ‘कूड़ाघर’ जैसी वे बुनियादी सवाल करती कहानियाँ हैं कि किसी की भी आँखें खोल देती हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा ‘जूठन’ दलितों में भी सबसे नीचे क्रम की जाति में पैदा होने की यातना और उससे उबरने के संघर्ष का सुलगता दस्तावेज है। यह एक व्यक्ति की आपबीती होते हुए भी एक पूरे-के-पूरे समुदाय की आपबीती बन जाती है।
इस पुस्तक में शामिल लेखों में ओमप्रकाश वाल्मीकि के विभिन्न विधाओं में फैले साहित्य, उनकी भाषा, उनकी सैद्धांतिक संकल्पना सबको विवेचित करने का प्रयास किया है। चूंकि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने हिंदी साहित्य की शाश्वतता और स्वायत्तता के समक्ष अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से संपूर्ण साहित्य को चुनौती दी है। इस चुनौतीपूर्ण कार्य में उनकी शिल्पधर्मिता गहरे रूप से उजागर होती है। वाल्मीकि जी की भाषा सरल, सुबोध एवं बोधगम्य तो है, पर आक्रोशविहीन प्रयुक्तियों के साथ मुहावरे और लोकोक्तियों के माध्यम से एक विशेष प्रकार के दृश्य-निर्माण की क्षमता से लैस है, जिसमें मौजूद पात्रों की छटपटाहट, अकुलाहट, असंतोष, हीन-भावना तथा आत्मविश्वास से भरे रूपों का विश्लेषण भी किया गया है।
हम सब पढ़े लिखे लोग हैं और अधिकतर उस पीढ़ी के हैं, जो अपने गाँवों के स्कूलों से किसी तरह पढ़कर निकली है। अपने बचपन को याद करके बताएँ, कि हममें से कितने ऐसे सौभाग्यशाली हैं, जिनके साथ स्कूल में जातोगत भेदभाव न हुआ हो। खुद ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते थे, ये और बच्चे होते होंगे, जो स्कूल के दिनों को याद कर नॉस्टेल्जिक हो जाते हैं, या जब ‘स्कूल में मेरा पहला दिन’ शीर्षक निबंध लिखवाया जाए उनके जेहन में खूबसूरत यादें उभरती होंगी, दलित बच्चे के मन में तो स्कूल याद कर गाली-गलौच करते, डंडे बरसाते त्यागी जैसे मास्टर उभरते हैं। एक तरफ़ कहा जाता है कि गुरु का सम्मान करना चाहिए, गुरु गोविंद दोऊ खड़े कहकर गुरु की महिमा का बखान किया जाता है, पर हम ऐसे गुरुओं का सम्मान कैसे करें, जिन्होंने हमें सबसे पहले हमारी जाति का बोध कराकर जलीज किया और हमारे अबोध मन पर ऐसे निशान छोड़ दिए, जो अब भी कुरेदो तो टीसते हैं। कौन नहीं जानता कि इसमें लिखा एक-एक शब्द सही है और गांव का नाम बदलने और मास्टर से पहले त्यागी की जगह जाट, राजपूत, ठाकुर वगैरह ऐसा कोई दूसरा ’ताकतवर शब्द` जोड़ देने से भी उतना ही सही रहता है। इसलिए याद किया जाना चाहिए ओमप्रकाश वाल्मीकि को, क्योंकि वे हमारा सामना हमारी असलियत से करवाते हैं और इनसे संघर्ष करने तथा अपनी अगली पीढ़ी को मजबूत और बेखौफ़ कर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। समाज में ब्राह्मणवाद और सामन्तवाद रूपी जितने ‘घुसपठिए’ मौजूद हैं, जिनकी वजह से दलितों, शोषितों ने ‘सदियों का संताप’ झेला है, ‘जूठन’ उठाने और खाने को विवश हुए हैं, उनके खिलाफ़ वाल्मीकि जी की स्वाभिमानी लेखनी का प्रकाश हमें सदा आलोकित करता रहेगा। इस अर्थ में डॉ. नरेन्द्र वाल्मीकि द्वारा संपादित यह किताब बेहद अर्थपूर्ण और जरूरी हस्तक्षेप करेगी, ऐसा विश्वास है। ‘सलाम’ मैं उन सभी लेखकों के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ, जिनके आलोचनात्मक लेखों से प्रस्तुत विषय पर सम्यक् प्रकाश पड़ सका है। मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि यह पुस्तक न केवल साहित्य की विशाल परंपरा में एक विकसित दृष्टिकोण का विकास कर सकेगी, वरन्न शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी।
मैं डॉ. नरेन्द्र वाल्मीकि को उनके इस महत्वपूर्ण संपादन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि वे इसी तरह अपने कार्यों द्वारा पूरी तत्परता से साहित्य का पथ प्रशस्त करते रहेंगे।

-प्रो. जय कौशल
हिन्दी विभाग, असम विश्वविद्यालय, दीफू परिसर
कार्बी आंगलोंग, असम- 782462

1502 Views

You may also like these posts

मनुष्य
मनुष्य
Sanjay ' शून्य'
राखी
राखी
Ramesh Kumar Yogi
मन्नत के धागे
मन्नत के धागे
Dr. Mulla Adam Ali
शान्ति दूत
शान्ति दूत
Arun Prasad
जाने किस मोड़ पे आकर मै रुक जाती हूं।
जाने किस मोड़ पे आकर मै रुक जाती हूं।
Phool gufran
हिन्दु नववर्ष
हिन्दु नववर्ष
भरत कुमार सोलंकी
*समझो मिट्टी यह जगत, यह संसार असार 【कुंडलिया】*
*समझो मिट्टी यह जगत, यह संसार असार 【कुंडलिया】*
Ravi Prakash
मां
मां
Charu Mitra
सर्द पूनम का मुझे सपना सुहाना याद है...!
सर्द पूनम का मुझे सपना सुहाना याद है...!
पंकज परिंदा
सुख भी बाँटा है
सुख भी बाँटा है
Shweta Soni
4699.*पूर्णिका*
4699.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
रक्षा बंधन
रक्षा बंधन
डॉ सगीर अहमद सिद्दीकी Dr SAGHEER AHMAD
झुकता हूं.......
झुकता हूं.......
A🇨🇭maanush
कविता
कविता
Rambali Mishra
हिन्दी दिवस
हिन्दी दिवस
मनोज कर्ण
#काश मुझसे ना मिलते तुम
#काश मुझसे ना मिलते तुम
पूर्वार्थ
"सलीका"
Dr. Kishan tandon kranti
वो आरज़ू वो इशारे कहाॅं समझते हैं
वो आरज़ू वो इशारे कहाॅं समझते हैं
Monika Arora
अनन्यानुभूति
अनन्यानुभूति
महेश चन्द्र त्रिपाठी
*सार्थक दीपावली*
*सार्थक दीपावली*
ABHA PANDEY
..
..
*प्रणय*
"माँ का आँचल"
Dr. Asha Kumar Rastogi M.D.(Medicine),DTCD
अनपढ़ बनावे के साज़िश
अनपढ़ बनावे के साज़िश
Shekhar Chandra Mitra
विक्रमादित्य के बत्तीस गुण
विक्रमादित्य के बत्तीस गुण
Vijay Nagar
जा रहे हो तुम अपने धाम गणपति
जा रहे हो तुम अपने धाम गणपति
विशाल शुक्ल
हमारी नई दुनिया
हमारी नई दुनिया
Bindesh kumar jha
3. Showers
3. Showers
Santosh Khanna (world record holder)
इस दिवाली …
इस दिवाली …
Rekha Drolia
शायरी का बादशाह हूं कलम मेरी रानी अल्फाज मेरे गुलाम है बाकी
शायरी का बादशाह हूं कलम मेरी रानी अल्फाज मेरे गुलाम है बाकी
Ranjeet kumar patre
" गप्प लिय मोदी सं आ टाका लिय बाइडन सं "
DrLakshman Jha Parimal
Loading...