एक नज़्म – बे – क़ायदा
एक नज़्म – बे – क़ायदा
डॉ अरुण कुमार शास्त्री // एक अबोध बालक // अरुण अतृप्त
वक़्त मिलता है कहाँ
आज के मौसुल में
रक़ीबा दर – ब – दर
डोलने का हुनर मंद है
ये ख़ाक सार
इक अदद पेट ही है
जिसने न जाने कितनी
जिंदगियां लीली है
तुखंम उस पर कभी भरता नहीं
हर वक्त सुरसा सा
मुँह खोल के रखता है
न जाने किस कदर
इसमें ख़ज़ीली हैं।
ईंते ख़ाबां मुलम्मा कौन सा
इस पर चढ़ा होगा
दिखाई भी तो नहीं देता
मगर इक बात मुझको
इसके जानिब ये ज़रुर कहनी है।
अगरचे ये नहीं होता
बा कसम ये दुनिया नहीं होती
ये जो फौज इंसानो को दीखती है ना
हर कदम जर्रे जर्रे पर
बा खुदा ये बिना इसके तो क्या
फिर यहाँ होती थी
बहुत सोचा हुआ लोचा
कदम लड़खड़ाने लगे मौला
मगर इसको तो चाहिए
कुछ चटख ये बात केहनी है,
रूखे रुखसार पर मुर्दगी सी छा जाती है।
अगरचे इसको देने में
कुछ देर हो जाये
कसम से पेट है बल्हाह
या के मसालची की धौंकनी है ये
अमां यारो मिरि रचना का
तफ़्सरा कर देना
मिरि ब्लॉग के सम्पादक ने,
मुये इस पेट के खाने की
बाबत मुझको ५ रुपया देने की
सिफारिश की है।