आत्महीनता एक अभिशाप
किसी मनुष्य के सामान्य गुणों कि प्रशंसा कर उसे सम्मान देना तथा उसे और श्रेष्ठ कार्य करने के लिए प्रेरित करना हम सभी मनुष्यों के मनुष्यत्व के विशेष गुणों को दर्शाता है ।
इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अपने से पद या उम्र में छोटे व्यक्ति से दुर्व्यवहार करता है उसकी छोटी-छोटी गलतियों के लिए उसे भला बुरा कहता है या दूसरों का अपमान करने के अवसरों की तलाश में रहता है तो वह व्यक्ति जाने अनजाने अपने ही ओछेपन का परिचय देता है ।
इस प्रकार का अमानवोचित व्यवहार दूसरे व्यक्ति के मन में आत्महीनता के रूप में सदा के लिए बैठ जाता है जिससे उबरने में कठिन परिश्रम और लंबा समय लगता है ।
मनुष्य के जीवन में सम्मान का बढ़ा महत्व है यदि व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए किसी कार्य हेतु सम्मान मिलता है तो उस व्यक्ति का मनोबल आकाश की ऊंचाइयों को छूने लगता है तथा वह और सजगता से अपने कर्तव्यों के प्रति जागृत हो जाता है ।
वहीं यदि किसी व्यक्ति को हर बात में रोका टोका जाये बात-बात में उसकी गलती बताई जाये तो चाहे कितना भी बुद्धिमान व्यक्ति क्यों न हो उसे अपने अंदर हीनता का भाव अनुभव होने लगता है और जब यह भाव धीर-धीरे उसके व्यक्तित्व में घर बना लेता है तो वह व्यक्ति के सभी गुणों को दीमक की भांति चट कर जाता है । विद्यार्थियों के परिप्रेक्ष्य में भी यही बात आती है ।
‘आत्महीनता’ अर्थात अपनी योग्यता अपने ज्ञान के प्रति अविश्वास रखना और स्वयं को दूसरों की तुलना में गिरा हुआ मानना है यह एक ऐसा मानसिक रोग है जो विद्यार्थियों के जीवन की भावी संभावनाओं को ध्वस्त कर देता है । कहते हैं कि हाथी को अन्य प्राणी डील-डौल में उनके वास्तविक आकार-प्रकार से कहीं बड़े दिखाई देते हैं। उसकी आंख की बनावट ऐसी होती है कि वह अन्य प्राणियों का आकार कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर देखती है, इसी कारण हाथी दूसरे प्राणियों से भयभीत रहता है और सामान्यतः एकाएक किसी पर आक्रमण नहीं करता ।
इसी प्रकार आत्महीनता के कारण विद्यार्थियों अपने अंदर छुपी हुई संभावनाओं को भूल कर परिस्थितियों को उस प्रकार नहीं देखता जिस प्रकार की वह होती हैं बल्कि अपनी छोटी से छोटी समस्या को भी विकराल समझता है और एक प्रकार के अज्ञात भय से आतंकित रहता है ।
इस प्रकार की मनोविकृति के कारण अधिकतर विद्यार्थियों मन ही मन स्वयं को तिरस्कृत करते रहते हैं और यह विकृति कब उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बन जाती है उन्हें पता भी नहीं चलता और वे सही व उचित बात भी नहीं कह पाते इस प्रकार की मनःस्थिति का सबसे ज्यादा प्रभाव उनकी शिक्षा पर पड़ता है उन्हें एक डर लगा रहता है कि पता नहीं मैं परीक्षा में पास हो पाऊँगा या नहीं और ये डर ही उनकी योग्यता को निगल जाता
है ।
विचारणीय है कि बच्चों में आत्महीनता की यह भावना कहाँ से क्यों उत्पन्न होती है? मनोविज्ञान इसके कई कारण बताता हैं। बच्चों को बचपन में आवश्यक स्नेह-सम्मान न मिल पाना, माता-पिता या अभिभावकों की ओर से उपेक्षा, उपहास का कारण बनते रहना या अभावग्रस्त स्थिति में समय गुजारते रहना आदि ऐसे कारण हैं जो बचपन से ही ऐसी मानसिक परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं, जिनके कारण बच्चे बड़े होकर भी आत्महीनता की महाव्याधि के शिकार बनते हैं।
यहाँ तक ही नहीं कई बच्चे तो नशे की लत में पढ़कर अपना जीवन का नाश कर बैठते हैं ऐसे बच्चे जिन्हें माता-पिता का स्नेह नहीं मिला तथा जो अकेलेपन के शिकार हैं और बचपन से ही अपने आप को उपेक्षित महसूस करते हैं उनमें चिंताजनक रूप में आत्महीनता की भावना पाई जाती है और प्रायः यही लोग पथभ्रष्ट होते हैं।
अतः उससे छुटकारा पाना अत्यंत आवश्यक है। परिस्थितियों को बढ़ा-चढ़ाकर देखने की आदत और अपने आप को दूसरों के सामने छोटा, हेय, हीन समझने का स्वभाव आत्महीनता की भावना का प्रमुख लक्षण है। इस व्याधि को जड़-मूल से मिटाने हेतु आवश्यक है कि हम उचित और अनुचित की पहचान कर सकें और अपने मनोबल को इतना दृढ़ करें कि समय आने पर हम उचित को ही अपनाएँ और अनुचित का दृढ़ता से बहिष्कार और विरोध कर सकें सहमत होना और हां कहना अच्छी बात है, पर वह इतनी अच्छी बात नहीं है कि यदि कोई बात अनुचित लग रही है और अनुचित लगने के पर्याप्त कारण हैं, तो भी हां किया ही जाए और सहमत हुआ ही जाए। स्पष्ट रूप से, निःसंकोच भाव से अस्वीकार करने की हिम्मत भी रखनी चाहिए।
सोच-विचार करने में यह बात भी सम्मिलित रखनी चाहिए कि हर सही-गलत बात में हां-हां करते रहने से दूसरों की दृष्टि में अपने व्यक्तित्व का वजन घट जाता है और आत्मगौरव को ठेस पहुंचती है।
एक मानसिक रूप से परिपक्व व्यक्तित्व वही है जो अपने विचारों को स्पष्ट किंतु नम्र और संतुलित शब्दों में व्यक्त कर सके.
मनुष्य ईश्वर का पुत्र है और वेदों, पुराणोंमें ईश्वर को सर्वशक्तिमान और सर्वगुण सम्पन्न कहा गया है तो जब हमारे पिता परमात्मा हैं तो हम हीन कैसे हो सकते है हमारे अंदर भी अनेकानेक महत्वपूर्ण योग्यताएं विद्यमान है जैसे ही ये भाव हम अपने मन में लाते है हमारे क्षुद्र विचार तिरोहित होने लगते है कुंठाओं की गांठ खुलने लगती है ,आवश्यकता बस यह है कि हम इस चिंतन को निरंतर बनाए रखें ।
( सर्वाधिकार सुरक्षित)
पंकज कुमार शर्मा ‘प्रखर’
लेखक एवं विचारक
सुन्दर नगर,कोटा ,राज॰