आइना हूं
कभी लवों को तो कभी मुस्कुराहट बयान करता हूं,
कभी जुल्फों को तो कभी नैन नक्श बयां करता हूं|
कभी हंस देता हूं उनकी हंसी को देखकर
कभी उनके खूबसूरत अक्स को बयां करता हूं
मन जी मन उदास हो जाता हूं में खुद भी ,
जब उनकी उदासी को बयां करता हूं |
कभी टूटता कभी बिखरता
और कभी तोड़ दिया जाता हूं मैं
जब में उनकी बद्शक्ली को बयां करता हूं
मैं जानता नहीं, समझता नहीं, कुछ कहता भी नहीं
वो तोड़ते हैं अक्सर मुझे मैं आह तक भरता नहीं |
कमबख्त मेरे जिस्म के टूटने की आवाज
देती है गवाही मेरे रोने की
सबूत देती है मेरे गुनहगार होने की
मगर सच मानो मैं गुनहगार नहीं
हूं शिकार वक्त का और कुछ नहीं
आप ही कहिए मैने क्या गुनाह किया
उनके अक्स की हकीकत को बस बयां किया
और क्या कहूं अपने वजूद के बारे में
आइना हूं..हैं आइना हूं
सर से पांव तक आपके जिस्म को बयां करता हूं
मुझ जैसा आइना है एक आपके अंदर भी
कभी कभी कहते हैं आप उसे रूह भी
रूह के उस आईने में सबको झांककर देखो
और फिर मुझे भी उसमें आंककर देखो
तुम जन जाओगे मेरे वजूद को भी
मेरे जिस्म पर पड़े उन जख्मों को भी
और कहूं क्या अपना जिक्र क्या करूं
तुम तो देखते हो फकत एक ही चांद
मैं हर रोज ढेरों चांद देखता हूं
सुमंगल सिंह सिकरवार