अतीत की रोटी
अतीत की रोटी
ज्ञान व प्रतिभा पर, संकट गहराई;
निज स्वार्थ में, ऐसी नियम बनाई।
शिक्षा व ज्ञान की, जब बात होती;
सेकते सब, फिर अतीत की रोटी।
बढ़ रहे, मूर्ख अज्ञानी जनसंख्या;
भटके, जानी-मानी-ज्ञानी संख्या।
अब ज्ञान व संस्कार,बना पनौती;
लोभी नाचे,सेके अतीत की रोटी।
दुहाई दे वे, अतीत में सताया था;
दुखरा रोते, वो मेरा ही साया था।
निजलोभ में न भूले, समय बीती;
सेकते सब,फिर अतीत की रोटी।
किसी एक को,मंदिर न जाने दिया;
किसी एक को,साथ न खाने दिया।
सदा, आरक्षित जुबां ये बात होती;
सेकते फिर , सब अतीत की रोटी।
कहते हिंद की,आरक्षित आबादी;
क्यों न होती मेरी, सामान्य शादी।
संत-पुजारी, बनू ऐसी चाह होती;
ज्ञानद्रोही सेकते,अतीत की रोटी।
कथित कल्पित, जुल्म का बदला;
ज्ञानी से लेते, देशी मूर्ख व पगला।
जो जाग रहे, उनके किस्मत रोती;
सुस्त-सुसुप्त सेंके,अतीत की रोटी।
हर कुर्सी हो रही, आज आरक्षित;
हिंद भला कैसे हो, ज्ञान से रक्षित।
देश का विधान कहे,विद्या है छोटी;
भ्रष्ट बुद्धि सेकते, अतीत की रोटी।
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✍🏻पंकज कर्ण
कटिहार (बिहार)