फितरत
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मुश्किल है पहचानना,
जिसे फितरत कहते हैं।
दुनिया यह वो है हुजूर,
जहाँ भेड़ की खाल में,
छुपकर भेड़िये रहते हैं।
और – जो गलती से,
पहचान ही गये इनको,
पहचान इनकी कायम,
न हरगिज रख पाओगे।
रंग-रूप भी बदल लेते,
हैं ये गिरगिट की तरह,
बार-बार धोखा खाओगे।
बात न होती है खत्म,
बस यह इतने ही पर,
साँप को दूध पिलाकर,
हर कदम डसे जाओगे।
अद्भुत है दुनिया यह,
किसे-किसे, कब-कब,
समझाओगे, मनाओगे?
दौर निकल पड़ा है,
दगा, चालबाजी का,
सँभाल लो खुद को,
बेमौत मारे जाओगे।
रचनाकार – कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)।
दिनांक – ०१/०७/२०२३.