धीरे धीरे
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धीरे-धीरे अपनों का साथ, हाथों से छूटता चला गया।
जिंदगी का सफर अपना,इस तरह कटता चला गया।
आशा और निराशा के बीच, दिन गुजरता चला गया।
बिना अपने- अपनों के, यह पिंजर चलता चला गया।
उसका होना जिंदगी में मेरी, किस्मत को मंजूर न था।
जो भी दर्द मिला जीवन में, हँस के सहता चला गया।
छत-दीवारें घूरती मुझको, मैं खिजता ही चला गया।
वक्त की आँधी में पसरे यादों को,बटोरता चला गया।
कर कलेजा पत्थर का, पत्थर दिल को भूलता गया।
भूल नहीं पाया उसे,भूलने का अभिनय करता गया।
रिश्तों का छूटना शुरू हुआ तो,बस छूटता चला गया।
रेत-सा अपनों का साथ,मुठ्ठी से फिसलता चला गया।
किससे करते शिकायतें, दर्द देनेवाले सब अपने ही थे।अपनों पर भरोसा बना रहे, बस दर्द सहता चला गया।
©®रवि शंकर साह, बैद्यनाथ धाम, देवघर, झारखंड