मुक्तक
इस मुल्क में कारीगरी ढोता हुआ बचपन,
लिये फिरता है साँसों में सियाही कारखा़नों की,
तू जिस इंसाफ़ की देवी के आगे गिड़गिड़ाता है,
वो तुझको न्याय क्या देगी, न आँखों की, न कानों की?
इस मुल्क में कारीगरी ढोता हुआ बचपन,
लिये फिरता है साँसों में सियाही कारखा़नों की,
तू जिस इंसाफ़ की देवी के आगे गिड़गिड़ाता है,
वो तुझको न्याय क्या देगी, न आँखों की, न कानों की?