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19 Jun 2021 · 1 min read

रात बदरिया घिर-घिर आए....

रात बदरिया घिर – घिर आए।
पास न कोई दिल घबराए।

बागी हुआ निगोड़ा मौसम,
आ धमकाए लाज न आए।

उफ ! कैसी मनहूस घड़ी है,
बात – बात पर जी अकुलाए।

बेढब चालें चलती दुनिया,
बिना बात ही बात बनाए।

बुझी – बुझी सी लगे चाँदनी,
करके इंगित पास बुलाए।

किस गम में डूबा है चंदा,
फिर-फिर आए फिर-फिर जाए।

विरह – भुजंगम टले न टाले,
बैठा भीतर घात लगाए।

बैन रुँधे हैं नैन पिपासित,
रैन न जाए चैन न आए।

क्या – क्या और देखना बाकी,
‘सीमा’ गम की कौन बताए।

– सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
“मनके मेरे मन के” से

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