मुक्तक
किसी राजा या रानी के डमरु नही हैं हम,
दरबारों की नर्तकी के घुन्घरू नही हैं हम,
सत्ताधीशों की तुला के बट्टे भी नही हैं हम,
कोठों की तवायफों के दुपट्टे भी नही हैं हम,
अग्निवंश की परम्परा की हम मशाल हैं ,
हम श्रमिक के हाथ मे उठी हुई कुदाल हैं।