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20 Dec 2017 · 1 min read

“मुक्तक”

“मुक्तक”

होता कब यूँ ही कभी, शैशव शख्स उत्थान
जगत अभ्युदय जब हुआ, मचला था तूफान
रिद्धी सिद्धि अरु वृद्धि तो, चलती अपने माप
राह प्रगति गति बावरी, विचलित करती मान॥

तकते हैं जब हम कभी, कैसे हुआ विकास
खो जाते हैं विरह में, उन्नति पर्व सुहास
धीरज गृह आभा सुखी, सुखी नियति सह साख
अतिर उत्थान सुखद कहाँ, शोभा सृजन समास॥

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

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