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20 Dec 2017 · 1 min read

“मुक्तक”

“मुक्तक”

चपला चमक रही निज नभ में, मन चित छवि लग री प्यारी।
बिजली तड़क गगन लहराती, आभा अनुपम री न्यारी।
जिय डरि जाए ललक बढ़ाए, प्रति क्षणप्रभा पिय नियराए-
रंग बदलती सौदामिनी, बिजुरी छमके री क्यारी॥-1

चंचला अपने मन हरषे, मानों नभ को बुला रही।
दामिनी चमके नभ गरजे, धरती पलना झुला रही।
सहशयनी मृग नयनी आली, चपला चाहत हिलीमिली-
क्षणप्रभा अपनी गति चलती, लगता झुमका डुला रही॥

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

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