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30 Aug 2016 · 2 min read

गरीब का दुःख (कविता)

गरीब के श्रम से बनी है दुनिया
और उनके दुःख से चलती है
देश की अर्थव्यवस्था
जहाँ बिकती है हर चीज मुनाफा के लिए

स्त्री का तन
इंसान का गुर्दा
पीने के लिए शुद्ध पानी
साँस लेने को शुद्ध हवा
पोषण के लिए भोजन
कैरियर के लिए शिक्षा
….सब कुछ
अब पूँजी बाजार में उपलब्ध है
जहाँ गरीब का दुःख और उसकी संवेदना का
कोई मोल नहीं

गरीब के दुःख से भरे हैं
अखबार के पन्ने
नेताओं के भाषण में उतरा रहे होते हैं
गरीबों के दुःख
साधु-संतों के प्रवचन में शामिल हैं
संतोष और भक्ति के सन्देश
परंतु नहीं होती है उनमें मुक्ति की आकांक्षा
केवल छल होते हैं
भाषा की जादूगरी में

गरीब के दुःख से फल-फूल रही है
देश की राजनीति
हर पाँच साल पर
गरीब से दुःख का बजता है गीत
सत्ता के गलियारे में
और जनप्रतिनिधि हक़दार बन जाते हैं
कीमती बंगलों में रहने के लिए
फिर दावत उड़ातें हैं मजे से शाही पार्टियों में
बुर्जुआ और ब्राह्मणवादी लोगों के संग

गरीब के दुःख का अतीत भी दुःख से भरा है
हर कोई छेड़ता है दुःख का राग
बाँटना नहीं चाहता है कोई दुःख
सत्ता का सुख चाहते हैं सब
और छोड़ देते हैं दुःख का हिस्सा गरीबों के लिए

गरीब के दुःख से चलती है देश की संसद
सेना को मिलती है तनख्वाह
पुलिस को फलाहार भत्ता
फिर क्यों गिरती हैं गरीब की पीठ पर
पुलिस की लाठियां ?
सेना की बूट से कुचली जाती हैं
गरीब की अस्मितायें ?
संसद करती है पूंजीपति वर्ग की दलाली
नहीं होती है कोई पैरवी किसी अदालत में
क्यों?
आखिर क्यों ?

गरीब के दुःख से-
उपजता है अन्न,
चमचमाती हैं सड़कें
सुदूर हिमालय तक,
बनती हैं नयी-नयी आवासीय कालोनियाँ
परंतु नहीं मिलती हैं उनमें
गरीब को सिर छुपाने की जगह
आखिर क्यों?

गरीब के दुःख से भी भयानक दुःख है
गरीब के पक्ष में खड़े होना
और उसके वजूद को आकार देना
जिसने भी कहा गरीब को
मेहनतकश श्रमजीवी !
और बराबरी की मांग की
कहलाया वो विद्रोही,
ग़र दलित कहा और प्रतिनिधित्व की माँग की
तो जातिवादी कहलाये,
आदिवासियों के लिए जंगल और जमीन पर हक़
माँगने से बन गए नक्सलाइट

यह कैसा समय है?
आप न तो ठठाकर हँस सकते हैं
और न ही शिकायत कर सकते हैं
राज सत्ता के विरुद्ध

दोस्तों अभी वक्त है
हम मिलकर
जंगल से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढें
एक नई सुबह के लिए
– सुरेश चन्द, गोरखपुर

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