काश,! तुम होते खुली किताब की तरह..
काश ! तुम होते खुली किताब की तरह ,
तो हम पढ़ सकते थे तुम्हें अच्छी तरह ।
मगर तुम्हें पढ़ना नामुमकिन सा लगता है,
कई गहरे राज है चेहरे पर चेहरे की तरह ।
कोशिश तो बहुत करते है एक सिरा मिले,
और उलझ कर रह जाते है धागों की तरह ।
रोज देखते है तुम्हारा चेहरा ,लगता अपना सा,
मगर कभी कभी लगते हो बेगानो की तरह ।
तुम्हारी कथनी और करनी में फर्क तो होता है,
बदलती है तुम्हारी जुबान जाने किस किस तरह ।
तुम्हारी हकीकत जानने की कोशिश भी कर लें ,
तुम्हें आईना दिखाते टूट जाते है शीशे की तरह ।
कैसे समझें ,क्या समझें तुम्हें समझ में नहीं आता ,
तुम्हारी शातिराना फितरत ने बनाया दीवानों की तरह ।
अब समझे तो ख़ुदा ही समझें तुम्हें ,हम क्या समझे !.,
शायद वहीं समझ सके कि हो तुम इंसान किस तरह ।