Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
6 Jul 2025 · 1 min read

"क़त्ल की गवाही" ग़ज़ल

एक रस्ते से, जा के, कितनी थीं राहें निकलीं।
ढूंढने उसको जब थीं, मेरी, निगाहें निकलीं।

यूँ तो ग़ैरों को भी, हासिल था हर करम उसका,
इक मुझी को मगर, नापैद पनाहेँ निकलीं।

मशविराबाज़, तो थे दोस्त भी, बहुत यूँ तो,
कारगर उस पे पर, हरगिज़ न सलाहें निकलीँ।

ख़्वाब से भी, तो वो पल भर मेँ हो गया ग़ायब,
जब भी आग़ोश मेँ लेने, मिरी बाहें निकलीं।

दाद की रस्म भी , क्या ख़ूब निभाई उसने,
वाह उसने किया, जब-जब मिरी आहें निकलीं।

मुझको करना न दफ़न, अपने मकाँ के पीछे,
फिर न कहना, ये कहाँ से मिरी शाख़ें निकलीं।

क़त्ल की अपने, गवाही भी दूँ कैसे “आशा”,
घर से उसके भले, ख़ूँरेज़ सलाख़ेँ निकलीं..!

##————##———–##————##

Loading...