स्याह रातों की तन्हाईयाँ, यूँ हीं तो नहीं मुझे भाती हैं,
स्याह रातों की तन्हाईयाँ, यूँ हीं तो नहीं मुझे भाती हैं,
सितारों से भरे आसमां में, तेरी तस्वीर ये सजाती है।
ढहते खंडहर की खामोशी, मेरे कानों को जो सुहाती है,
मन की गहरी सरगोशी में, मुझे आवाजें तेरी ये सुनाती हैं।
अनछुए जंगल की पगडंडियां, यूँ हर रोज मुझे बुलाती है,
मेरे क़दमों के निशानों को, तेरी आहटों से ये मिलाती है।
टूटते लहरों की हर गूंज, मेरे दिल पर दस्तक दे जाती है,
कि हर भंवर की थरथराहट, तेरे नाम को दोहराती है।
हवाओं की ठंडी चादर, मेरी थकान को यूँ सुलाती है,
कि भ्रम के परदों से छनकर, तेरी खुशबुएं घर को महकाती है।
खिड़कियों से टकराती बारिशें, मुझे बेहोशी से यूँ उठाती है,
कि भींगे पत्तों पर सरसराती बूँदें, तेरी मुस्कुराहटें याद दिलाती हैं।
सूरज की पहली किरणें, मेरी नींदों को यूँ सताती हैं,
कि अधूरे वादों की तपिश, धुंध बनकर मुझे भटकाती हैं।
यथार्थ के कोरे कागज़ पर, संसार वियोग मुझे समझाती है,
पर प्रेम की अनंत परिधि, तेरा अस्तित्व मुझमें बसाती है।