सिन्दूरी सांझ की रेत पर, एक तन्हा घरौंदा बिलख रहा,
सिन्दूरी सांझ की रेत पर, एक तन्हा घरौंदा बिलख रहा,
कुछ ख्वाब अधूरे सिसक रहे, एक आस का टुकड़ा बिखर रहा।
तपती धूप तो सहचरी रही, संग जिसके रंग सुनहरा निखर रहा,
कुछ छाँव भी हिस्से में आये, पर वो वक्त्त ठहर कर किधर रहा।
निशानियां क़दमों की रही, और खामोशियों का सफर रहा,
उम्मीदें खिड़किओं पर बैठी रहीं, पर दहलीज पर कहर रहा।
आँगन में कुछ गीत भी चहके, और फूलों का भी जिक्र रहा,
किसी कोने में छिपी मुस्कराहट रही, जो अब धूल की गोद में बिसर रहा।
लहरों से टकराती रहीं दीवारें, फिर भी अस्तित्व उसका निडर रहा,
टूटे छज्जों को तकती रही आँखें, और मन समंदर का हीं सिहर रहा।
अब गहराई में समाना है, यूँ समंदर का हो जाना है,
वो अनकहे किस्सों की बात रही, ये कहानी का पूर्ण शिखर रहा।