कविता ( दु:खियारा बच्चा)
बच्चा एक घर से अपने. निकल सडक पर आया।
उल्झे बाल गरीबी झलकी, सर पर रत्ती भर ना साया।।
लत्ते लीरे लीरे दीखें मैला बदन दुबली सी काया।
नंगे पैर शकल भोली सी. तजती धूप ना दीखे छाया।।
भूख प्यास से अति व्याकुल, पाँव में काकड पत्थर चुभते।
आँखें भोजन पानी देखें, मन में भाव थे उठते बुझते।
निरंतर आगे बढता जाता, हालात नाआगे देखने झुकते।
मानव एक मार्ग में आया, बडे ठाठ थे उसके खुद के।।
बोला बेटा कहां से आऐ आगे कहाँ पर जाना है।
मात- पिता हैं कौन कहां पे कहां पे बना ठिकाना है।।
जूता चप्पल कोई न पहना , क्या खाना भी खाना है।
बोल, जुबां कुछ बोल न पायी.हां में ग्रीव हिलाना है।
,मात- पिता ना मेरा कोई ना कोई जगत ठिकाना हैं ।
थक कर नींद जहाँ पर् आये रात वहीं सो जाना हैं।।
ना कोई संगी साथी मेरा, ना भाई ना बहना है।
मेरे लिये पराया सब कुछ, अपने दम पर रहना है।
उमडा़ हिया भर गया दया से जूता तुरन्त दिलाया था।
नहलाया और लत्ते दीने. अपना सा उसे बनाया था।।
प्यार से कंधो पर बैठाया . होटल में ले आया था।
भोजन लजीज मंगायी थाली, भर पेट जो उसने खाया था।।
दूर मुसीबत सारी दीखी, तीन लोक सुख सारे थे।
क्या भगवान हमारे हो. या वो दोस्त तुम्हारे थे।।
मैंने स्वप्न रात में देखा, और भगवान पुकारे थे ।
टूटा फूटा पाव में जूता, दुःख दूर करो सर मारे थे।।
नहीं दुलारे मैं एक बन्दा, बस हृदय ने दुःख देख लिया।
दौलत मोहलत बेसुमार है. तृण भर सेवा कर “केक’ लिया।
दुःख में ही सुख ढूढां हैं, और सुख मैं सन्त का भेख लिया।
माया चित्त चोरनी है ये सब ठाठ बाट कर देख लिया।।
यहीं छोड सब जाना है यो. साथ न जाना धेला हो।
“मंगू” सकल पदार्थ जग में, परमार्थ का मेला हो ।।
नहीं फटकारे निर्बल को. जो चाहो जगात सुहेल हो ।
आज नही तो कल जाओगे, चला चली का मेला हो।