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13 Apr 2025 · 4 min read

क्यों “काले कोट” अब सवालों के घेरे में : अभिलेश श्रीभारती

साथियों,
आज दोपहर के लंच के बाद जब मैंने अख़बार खोला, तो पहली खबर ने जैसे मेरी आत्मा को झकझोर दिया —
“राजस्थान हाईकोर्ट की लिमिटेड कॉम्पिटिटिव एग्जाम में 99 में से कोई भी योग्य नहीं।”

मैं कुछ देर तक शब्दों को घूरता रहा, फिर एक बार और पढ़ा, फिर तीसरी बार — लेकिन हर बार वही शब्द थे, वही नतीजा, वही निराशा।
वाह! क्या पवित्रता है! क्या शुद्धता है! न्याय के इस नए शुद्धिकरण यज्ञ में सारे न्याय जल गए और राख भी नहीं मिली

ये कोई कॉलेज की परीक्षा नहीं थी। ये परीक्षा थी डिस्ट्रिक्ट जज बनने की।
और जो उम्मीदवार थे, वो भी कोई नौसिखिए नहीं थे।
ये सीनियर सिविल जज थे, जिनके पास कम से कम 5 साल का अनुभव था।
वो रोज़ अदालत में बैठते हैं, फैसले सुनाते हैं, तारीख पर तारीख देते हैं। संविधान की धाराओं में जनता की जिंदगी तय करते हैं और जनता की उम्मीद के साथ खेलते हैं।

लेकिन जब वही लोग अपने करियर के अगले पड़ाव के लिए एक परीक्षा में बैठे — तो एक भी ‘लायक़’ नहीं पाया गया?

क्या इसे संयोग कहें या सुनियोजित संहार?

अब मेरा सवाल ये परीक्षा या औपचारिकता?🤔

जिस परीक्षा का नाम था — Limited Competitive Examination, उसका उद्देश्य था सेवा में पहले से कार्यरत वरिष्ठ जजों में से कुछ को प्रमोट करके डिस्ट्रिक्ट जज बनाना। यानी ये एक क्लोज्ड इंटरनल प्रमोशन एग्जाम था, जिसमें वही लोग बैठ सकते थे जो पहले से न्यायिक सेवा में हैं।

परीक्षा हुई, सवाल पूछे गए, जवाब दिए गए, और फिर परिणाम आया —
“कोई भी उपयुक्त नहीं मिला”

यह वाक्य जितना छोटा है, उसका असर उतना ही गहरा।

क्या सभी 99 जज अयोग्य थे?तो उन्हें न्याय करने की योग्यता किसने दी।

वो 99 चेहरे…

हर चेहरे के पीछे एक कहानी है।
किसी ने गांव में पोस्टिंग पाई थी, दिन-रात कोर्ट-कचहरी में जनता की आवाज़ सुनी थी।
किसी ने शहर के दबाव झेले, केसों की भारी फाइलें संभालीं, तारीख़ों पर इंसाफ बांटा।

मतलब समझे नहीं समझे आप???
जब बात खुद के प्रमोशन की आई, तो ये सारे “अनफ़िट” हो गए? या यूँ कहें – “इनमें हमारा आदमी नहीं था।”

क्या यही योग्यता का मापदंड है?

हमारी न्यायपालिका कहती है कि वो सिर्फ योग्यता पर फैसले करती है।
लेकिन जब उसी के भीतर 99 में से कोई योग्य नहीं निकलता, तो सवाल उठते हैं:

👉क्या प्रश्नपत्र इतना अवास्तविक था?

👉क्या मूल्यांकन पक्षपाती था?

👉या फिर कोई ‘अपना’ अब तक तैयार नहीं हुआ था?

👉या फिर इसमें हमारा कोई आदमी नहीं था जो हमारे सिस्टम का हिस्सा बन सके।

क्योंकि इस देश में बहुत कुछ लिखा है “मेरिट” के नाम पर — पर चलता वही है जो मैनेज होता है।

एक लेखक का क्षोभ

मैं लेख लिखता हूँ, कहानियाँ कहता हूँ, अपनी कलमा क्या को आधार बनाकर अपनी भावनाओं को लिखता हूं, समाज को शब्दों के आईने में दिखाता हूँ।
लेकिन आज जो हुआ, वो कहानी नहीं — एक कटु सत्य है।

यह उस सिस्टम की परतें खोलता है, जो ऊपर से न्यायप्रिय, लेकिन भीतर से “अनुकूलता” का खेल खेलता है।

जहाँ वफादारी योग्यता से बड़ी होती है,
जहाँ चुप्पी ही प्रोमोशन की पहली शर्त बन जाती है,
जहाँ न्याय ही से अन्याय करने लगे
तो वो देश आदर्श राष्ट्र नहीं, व्यवस्थागत पिंजरा बन जाता है।

अब भविष्य की चिंता…

अब जब यही 99 जज, जो ‘अनफ़िट’ करार दिए गए, फिर से जनता के केसों पर बैठेंगे —
क्या उनका आत्मविश्वास वही रहेगा?
क्या जनता को मिलेगा वही निष्पक्ष न्याय? जब वह सभी अयोग्य थे तो आप बताइए क्यों आम आदमी को न्याय कैसे दे पाएंगे या अब तक कैसे दे रहे थे?

संविधान के नाम एक पुकार…

हमारे संविधान ने न्यायपालिका को लोकतंत्र की रीढ़ माना है।
पर जब रीढ़ ही हिल जाए, तो बाकी अंगों की क्या स्थिति होगी — यह कोई भी डॉक्टर बता सकता है।

ये परीक्षा सिर्फ जजों की नहीं थी — ये परीक्षा थी व्यवस्था की।
और अफसोस, व्यवस्था इस परीक्षा में बुरी तरह असफल रही। और यह परीक्षा न्यायिक व्यवस्था पर सवाल करती हैं।

अंत में एक और प्रश्न…

क्या न्याय अब लचीलेपन की परीक्षा बन गया है?
जहाँ न ईमानदारी मायने रखती है, न अनुभव, न सेवा —
सिर्फ वही पास होता है,
जो झुकता है, मौन रहता है, और आदेश पालन करता है?
या फिर जो उसके सिस्टम के साथ चलता है।

अगर हाँ,
तो अगली बार जब आप कोर्ट जाएं —
एक सवाल जरूर पूछिएगा खुद से:
“क्या मैं न्याय मांगने आया हूँ या व्यवस्था से भीख?”

कलम रुकी नहीं है, थकी है।
पर जब तक व्यवस्था नहीं बदलती —
ये कलम, ये सवाल, और ये दर्द —
हमेशा जीवित रहेंगे इस जीवंत को हमारी कलमें चीख चीख कहती रहेगी।

हमारी चिंता जायज है क्योंकि जो व्यवस्था पीड़ित को न्याय देने का वादा करती थी उसमें से यदि सभी अयोग्य हैं तो वह अब तक किस आधार पर पीड़ितों को न्याय कर रहे थे।

इस लेख का अंत नहीं है।
ये शुरुआत है — एक उस बहस की, जो हमें न्यायपालिका की पवित्रता और पारदर्शिता पर करने की जरूरत है।
एक उस आत्ममंथन की, जिसमें हमें तय करना है कि हम कैसा समाज बनाना चाहते हैं — सच पर खड़ा, या सिफ़ारिशों पर झुका हुआ?

✍️ आलेख ✍️
अभिलेश श्रीभारती सामाजिक
शोधकर्ता, विश्लेषक, लेखक
(राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा संगठन प्रमुख)

Language: Hindi
2 Likes · 28 Views
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