मिथिला क’ चार्वाक दर्शन

मिथिला क’ चार्वाक दर्शन
कखनहुं कखनहुं
मन मे खेआल आबैत अइ
जे ई धरा पर आहार श्रृंखला
सोझे सोझे बस
घास बकरी आ मनुक्खे टा क’ रहतिए,
त कतेक नीक होयतै..
बकरी घास के खाइत
आ मनुख बकरी के..
एकदम सोझ रेह म’,
नहि कोनो लाई लपटाई,
फुसियो नानाविध प्रकार क’
जीब जन्तु आ वनस्पति,
कनि देरी ठहरि,
फेर मन मे खेआल आयल,
अरे ! ई जऽ देउता सभ सेहो छैथ,
अपनहुं लेल ते किछु सोचने हेथिन्ह,
मनुख सऽ पूजा-पाठ प्रसाद चढ़बायब,
नानाविध प्रकारे फल फूल तीमन,
सेहो आवश्यके अछि,
लोक सभहक सेहंता परिपूर्ण करबा लेल,
पाबैन तिहाइर में ‘ ,
देउता पितर क’ इआद कएल जाइत अछि..
ई देउता पितर सभ मिलकऽ,
आहार श्रृंखला के कतेक
जटिल बना देओने छैथ,
मुदा अखनो धरि मिथिला भूमि में ,
अहारक कड़ी सोझे सोझ
देखाअ पड़ैत अछि ,
मिथिला में एकटा बराम्हनक धिया क’
विवाह कार्यक्रम में कन्यागत क दिश से रहऊ,
भोजन परसैत काल तजबीज करैत छलहुं ,
मुदा ई देख अवाक् भऽ गेलहुं जे _
सराती क तरफ से,
नानाविध व्यंजन परसैत काल,
कैएक बराती नेना-भुटका स’ लऽ केऽ
बड़-बुजुर्ग तक,
भात आ पूरी पत पर लेओने ,
हाथक इसारा से सभटा परसब बला क’ ,
अन्य सब व्यंजन देबअ सऽ
मना कऽ रहल छलाह,
जब हम पुछलियैन्हि त कहलैथ _
रहऽ दिअउ..
आओर सब आइटम खायब तऽ,
भूखे खत्म नञ भऽ जायत,
मीट कोना खायब..?
ई सुनि हमरा तत्क्षण अनुभूति भऽ गेल जे ,
ई ओ वेदभूमि मिथिला नहिं रहि गेल ,
अयाची मिश्र क
साग-पात खमहरुआ बला
मिथिला नहिं रहि गेल।
जनक-याज्ञवल्क्य,वाचस्पति,विद्यापति,
कुमारिल, मंडन ,उदयन आ
अयाची मिश्र, ज्योतिरीश्वर आदि आ _
आदर्श नारी विभूति में,
गार्गी, मैत्रेयी,भारती,लखिमा आदि क भूमि,
मिथिलांचल जकर बौद्धिक विकास,
चौदहवीं से अठारहवीं सदी के बीच _
अप्पन चरमोत्कर्ष पर छल,
ओ राजा जनक विदेहक धरती,
आब ओ अवनति क’ राह पकड़ि चुकल अछि,
एकटा समय छल जखन पांच वर्षक बालक _
बालोऽहं जगदानंदम सुना कऽ,
मिथिला नरेश के रत्नजडि़त कणठक हार ,
उतारबा कऽ अप्पन ग्रीवा में पहनवा लेलनि..
भगवान शंकर उगना महादेव,
महाकवि विद्यापति क’
विद्वता, सात्विकता आ भक्ति देख,
हुनक सेवक बनि गेल छलाह..
धर्मग्रंथ वेदभाष्य क नानाविध व्याख्या,
दर्शनक गांभीर्य,भाषा-साहित्यक समृद्ध परम्परा,
आदिगुरु शंकराचार्य क शास्त्रार्थ में हरायब,
सभटा इतिहास बनि कऽ रहि गेल अछि,
आब ओकर पुनरावृति ,
मिथिलाभूमि पर _
कदापि नहि भऽ सकैत अइ..
अखनहुं कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा में
ओना किछु शोधार्थी माथा मुंडोने,
शिखा बांधने आ चानन तिलक लगओने
वेदऋचा क पाठ करैत अवश्य भेट जायत,
मुदा जकरा हाथ में
मानवीय मूल्य,धर्म आ सात्विकता
के बागडोर हेबाक चाही,
वो आब शक्ति पूजा के प्रसादे तक
तर्कसंगत भऽ क रहि गेलाह..
होली दशहरा क पर्व आएत तऽ देखबै
देउता पितरक ओरियानि छोड़ि कऽ
यजमान हो या पुरोहित
दुनू झोला उठओने,
मांसक दोकान क’ बाहर
घण्टो पंक्तिबद्ध भऽ के
अप्पन बारी के प्रतीक्षा करैत भेट जेताह..
सभटा स’ख मनोरथ ओतहिए
आइब के समटब बुझाइत अछि..
मीट हलाल छै या झटका कोनो मतलब नहि ,
भाड़ म जाऽ दिअउ द्वैतवाद,
अद्वैतवाद विशिष्टाद्वैत..
बस केवल चारबाक दरसन,
जीवित रहबाक चाही..
यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्
ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
बस केवल घृतं शब्द के
मांस शब्द सऽ विस्थापित
कऽ देल जाउ _
यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्
ऋणं कृत्वा मांसं खादेत् ।
(ई हमर निजी विचार थिक _मनोज कर्ण)
स्वरचित आओर मौलिक
सर्वाधिकार सुरक्षित
आलेख रचनाकार – मनोज कर्ण
कटिहार (बिहार)