लिखना

लिखना
यूँ ही नहीं शुरू किया मैंने
दर्द की इन्तहा के उस दौर में
मैंने अपनी व्यथा कहनी चाही,
रोया, जान देने की नाकाम कोशिश की
अंततः मौन साधा–और फ़िर..
जब सीने में बेतहाशा शोर उठने लगा
एक दिन यूँ ही क़लम उठा ली
कहा ख़ुद से…
तुम्हारे लिए यही ठीक है
अपनी पीड़ा को स्याही में डुबो कर
अल्फाजों से उकेर लो दर्द अपना
फ़िर धीमे धीमे
जिंदगी से कोई शिक़ायत नहीं रही
मैं लिखता रहा, बांटता रहा दर्द अपना
जो सुनना नहीं चाहते थे
अब वही पढ़ते हैं मेरे लफ्जों को
दर्द मेरा है आँकते हैं अपनी सहूलियत से
कोई वाह कहता है, कोई आह कहता है
किसी को मेरा दर्द अपना सा लगता है
पर ये जिंदगी तो वो ज़िंदगी नहीं
जिसका तसव्वुर किया था कभी मैंने
फ़िर भी ख़ुश हूँ
अब दर्द डराता नहीं है मुझे
अपना सा लगता है, खोने से जिसे डर लगता है
हिमांशु Kulshrestha