“मन का गुबार”
“मन का गुबार”
मन में दबे जो भाव हैं भारी,
बन जाते हैं वो एक दुख की क्यारी।
घुटन सी होती, बोझ सा लगता,
हर पल जीवन जैसे थम सा जाता।
पुरानी बातें, कसक पुरानी,
जकड़ के रखती, बनती कहानी।
शिकवे-गिले और अनकही बातें,
अंदर ही अंदर करती हैं घातें।
पर कब तक यह बोझ उठाए फिरना?
कब तक खुद को ही तकलीफ़ देना?
ज़रूरी है अब यह गुबार निकालना,
हल्का होकर फिर से संभलना।
खोलो हृदय के सारे कपाट,
बहने दो आँसू, कह दो हर बात।
गुस्सा, निराशा या हो कोई डर,
उसे बाहर निकालो, मत करो सबर।
यह राह आसान तो बिल्कुल नहीं है,
पर खुद को आज़ाद करना सही है।
गुबार निकलेंगे, मन होगा साफ़,
फिर आएगी जीवन में नई आफ़।
पिछली बातों को अब भूल जाओ,
नई उम्मीदों का दामन थामो।
हर गलती से सीखो, बनो और प्रखर,
मन का गुबार निकालकर बढ़ो आगे निरंतर।
खुली हवा में साँसें भरो अब,
नए सपनों के रंग भरो सब।
बीता हुआ कल तो गया बीत,
आने वाला कल होगा नवनीत।
तो हिम्मत करो, और करो प्रयास,
मन के गुबार से पाओ छुटकारा।
हल्के मन से जो करोगे शुरुआत,
ज़रूर मिलेगी मंज़िल की सौगात।
कवि
आलोक पांडेय
गरोठ, मंदसौर मध्यप्रदेश।