“क्रांति और कणिका”

✍️आलोक कुमार पांडेय “स्वच्छंद”
एक था सिंह, लपटों में पला,
एक था सेज, परमाणु चला।
दोनों ने चूमा मृत्यु का द्वार,
एक स्वतन्त्रता का प्रेमी, एक करे विज्ञान से प्यार।
भगत
बम नहीं था लक्ष्य मेरा,
विचारों का था वो सवेरा।
फांसी के फंदे को चूमा,
हंसकर मौत को गले लगाया।
इंकलाब की थी वो पुकार,
जिससे कांपी थी जेल की दीवार।
ओपनहाइमर
श्लोकों में ढूंढा ब्रह्म का राज,
और फिर बनाया विनाश का ताज।
“मैं मृत्यु हूं”, जब बोले तुम,
साक्षात् समय से हो गए गुम।
गीता की व्याख्या में खोए,
पर हिरोशिमा-नगासाकी रोए।
सवाल यही इतिहास का है — .
विज्ञान चले विचार के साथ, .
या हो जाए वो क्रांति से विरत, .
जिसका नतीजा हो केवल सर्वनाश…?
न मैं केवल कवि कहाता हूँ,
मैं समय-धारा को गाता हूँ।
जहाँ भगत की आँधी बहती,
वहाँ विचारों का दीप जलाता हूँ।
ओपेनहाइमर की उलझन में,
मैं विज्ञान का मर्म खोजता हूँ।
एक फाँसी की मुस्कान लिए,
एक ‘मैं मृत्यु हूँ’ की पीड़ा बोता हूँ।
मैं पांडेय आलोक, एक यात्री,
जो शब्दों में युग चित्र रचता।
गरोठ की मिट्टी साथ लिए,
हर लहर में इतिहास को बांचता।
पर हर पंक्ति, हर भाव मेरा,
अर्चना की स्मृति से उपजा है।
उसकी निश्छल मुस्कान अभी तक,
मेरे दोहों में दीपक-सा सजा है।
मेरी कविता न मनोरंजन हैं,
न केवल तुकबंदी का नाम।
यह तो प्रश्नों की मशाल है,
जो ढूंढे हर अर्थ में महानाम।
स्वरचित एवं मौलिक
✍️ कवि परिचय:
नाम: आलोक कुमार पांडेय स्वच्छंद
निवास: गरोठ, मंदसौर, मध्यप्रदेश
मोबाइल: 8156003564