#सूफ़ियाना_ग़ज़ल-

#सूफ़ियाना_ग़ज़ल-
■ रोज़ छिड़ती है इक बहस मुझमें…!!
【प्रणय प्रभात】
★ मैं हूँ तुझमें या तू है बस मुझमें?
मैं क़फ़स में हूँ या क़फ़स मुझमें??
★ नूर, खुशबू, छुअन सभी उसकी।
जो समाती है हर नफ़स मुझमें।।
★ गर्म साँसों से ख़्वाहिशें दहकीं।
यूं तो संदल, गुलाब, ख़स मुझमें।।
★ ले गया मेरा सब चुरा कर वो।
रह गया जो कई बरस मुझमें।।
★ मैं ही मज़लूम, मुजरिमो-मुंसिफ़।
रोज़ छिड़ती है इक बहस मुझमें।।
★ कल यहीं महफ़िलें मचलती थीं।
आज सब कुछ तहस-नहस मुझमें।।
★ वो समझता है शिकस्ता लेकिन।
अब भी बाक़ी है कुछ अनस मुझमें।।
😊😊😊😊😊😊😊😊😊
#जटिल_शब्दार्थ-
कफस/बंदीगृह, नफ़स/सांस, संदल/चंदन, मुंसिफ़/न्यायकर्ता, मज़लूम/ पीड़ित, अनस/अविनाशी, अनश्वर
-सम्पादक-
न्यूज़&व्यूज (मप्र)