कलम बेचकर खा रहे

कलम बेचकर खा रहे
कलम बेचकर खा रहे,कलम सिपाही आज।
मुरझाई सी कलम है, स्याही है नाराज।।
कलम बिकी बाजार में, लेकर मोटे दाम।
ठगे दीन के हक सभी, ठगा गया आवाम।।
बिके हुए अखबार के, घुटे-घुटे से लेख।
जालसाजियां लेख में, पृष्ठ खोल के देख।।
पृष्ठ भरे अखबार के, मशहूरी के देख।
विज्ञापन भी खबर से, पढ बाजारी लेख।।
अखबारों के पृष्ठ पर, सत्ता की शतरंज।
छूट गए संवाद सब, करिए किस पर तंज।।
अखबारों में लेख कम, राजनीति पुरजोर।
बिककर छपता आजकल, आया कैसा दौर।।
‘सिल्ला’ इन अखबार की,नीति नहीं है नेक।
विज्ञापन तो लाख हैं, खबर मिलेगी एक।।
विनोद सिल्ला